
नरेन्द्र मोदी के केंद्र में पहुंचने के बाद आनंदीबेन को सबसे योग्य मानकर उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए चुना गया था लेकिन पहले पाटीदार आंदोलन और बाद में गोरक्षकों के दलित उत्पीड़न से जैसी व्यापक प्रतिक्रियाएं हुई, उससे यह संदेश गया कि वे स्थिति को संभाल पाने में सक्षम नहीं है। इसी से कथित तौर पर भाजपा नेतृत्व भी चुनाव के पहले उनके बदले किसी और को जिम्मेदारी देने के हक में था। लेकिन इसके लिए माकूल वक्त की तलाश थी। एक कयास यह है कि भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद फरवरी-मार्च में गुजरात की गद्दी अमित शाह को सौंपने की योजना बना रहा था, ताकि वे चुनावी वैतरणी आसानी से पार लगा दें. लेकिन यह कयास लगाना मुश्किल था कि आनंदीबेन अपने इस्तीफे को जाहिर करने के लिए सोशल मीडिया को औजार बनाएंगी।
इस अप्रत्याशित घटना से शाह की गुजरात में ताजपोशी की योजना गड़बड़ा गई है। अभी यह होने लगा था कि आनंदीबेन के समर्थकों के मुताबिक अभी यह होने लगा था कि राज्य के मंत्री और अफसर सीधे अमित शाह से निर्देश लेने लगे थे, इसलिए उनका राजकाज चलाना मुश्किल हो गया था। यही नहीं, उनके खेमे में यह माना जा रहा है कि पाटीदार आंदोलन और दलित नाराजगी को हवा देने में भी पार्टी की अंदरूनी कलह का ही हाथ है। इस पचड़े में उलझे बगैर इतना तो कहा ही जा सकता है कि संघ परिवार की गुजरात रूपी प्रयोगशाला में अब कई गुट और टुकड़े नजर आने लगे हैं।
इन दरारों को अगर नहीं भरा तो संघ परिवार और भाजपा दोनों के लिए यह खतरे की घंटी के समान है। इसलिए नए मुख्यमंत्री को राज्य में विभिन्न वर्गों की नाराजगी दूर करने के अलावा पार्टी में उभरे बड़े संकट से उबरने की कोशिश करनी होगी। बेशक, दलित नाराजगी पर फौरन काबू पाना होगा, ताकि हुए नुकसान की भरपाई की जा सके। वैसे इस सबका असर गुजरात समीपवर्ती राज्यों में सबसे अधिक मध्यप्रदेश में होगा। जहाँ व्यापम जैसे बड़े मुद्दे भी नजरअंदाज किये जा रहे हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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