राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत में उच्च शिक्षा जिन चुनौतियों का सामना कर रही है, वे किसी से छिपी नहीं हैं। शिक्षा के स्तर को गिराए बिना हमें अधिक से अधिक छात्रों को शिक्षित करना होगा। यह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना गुणवत्ता के औसत स्तर को बेहतर बनाना। समावेशन जरूरी है और इसके लिए शिक्षा की पहुंच बढ़ानी होगी। जरूरत यह भी है कि कुछ ऐसे संस्थान बनाए जाएं, जो उत्कृष्टता के मामले में दुनिया के बेहतरीन संस्थानों को टक्कर दे सकें। दुखद है कि ऐसी उत्कृष्टता का अपने यहां अभाव है।
टाइम्स हायर एजुकेशन द्वारा तैयार विश्वविद्यालयों की साल 2015-16 की वैश्विक सूची में शीर्ष के 200 में हमारे यहां का कोई संस्थान नहीं है। शीर्ष 400 में भी हमारे सिर्फ दो इंस्टीट्यूट हैं- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (बेंगलुरु) और आईआईटी, बॉम्बे। 401 से 600 तक की रैंकिंग में हमारे पांच अन्य आईआईटी हैं, जबकि 601 से 800 की रैंकिंग में सिर्फ छह विश्वविद्यालय हैं। जाहिर है, हमारे विश्वविद्यालयों को वैश्विक मानकों पर खरा उतरने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है।
दुखद यह है कि कुछ भारतीय विश्वविद्यालयों के कारण हमें जो तुलनात्मक लाभ हासिल था, वह भी हमने वक्त के साथ गंवा दिया। तीन दशक पहले की तुलना में स्थिति ज्यादा बिगड़ गई है। देश में विश्वविद्यालयों की सेहत लगातार गिरी है। आज की तस्वीर यह है कि प्रतिष्ठित सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए छात्रों के बीच जबर्दस्त होड़ मची रहती है। मगर उनमें कुछ छात्रों को ही, जिनके 12वीं में बेहतर अंक होते हैं, दाखिला मिल पाता है। शेष बचे छात्रों में ज्यादातर निजी संस्थानों का रुख करते हैं, जिनकी फीस तो काफी ज्यादा होती है, मगर गुणवत्ता आमतौर पर खराब होती है। ऐसे छात्र बेहद कम हैं, जिनके माता-पिता इतने धनाढ्य हैं कि उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेज सकें।
असल में, हमारी उच्च शिक्षा दो पाटों के बीच फंस गई है। एक धारा यह मानती है कि निजी संस्थानों के बहाने बाजार ही इस समस्या का तारणहार हो सकता है। ऐसे निजी संस्थान बतौर कारोबार शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, सरकार सार्वजनिक विश्वविद्यालयों पर अपना नियंत्रण बचाए रखने में विश्वास करती है। ऐसा इसलिए कि संरक्षण, विचारधारा, अधिकार या निहित स्वार्थों के तहत उच्च शिक्षा में वह अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर सके। विश्वविद्यालयों के राजनीतिकरण के लिए हर हुकूमत और हर सियासी पार्टी दोषी है। इससे स्वायत्तता खत्म होती है और रचनात्मकता कुंद होती है। जाहिर है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता का व्यापक नुकसान होता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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