
चिकित्सा विज्ञान की तमाम प्रगति के बावजूद दुनिया कई बीमारियों से हर समय जूझने के लिए अभिशप्त है, इन बीमारियों के उन्मूलन का उपाय अभी तक नहीं ढूंढ़ा जा सका है। यह बात डेंगू पर भी लागू होती है। हालांकि यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में सीधे संक्रमित नहीं होता, पर एडीस मच्छरों के जरिए इसका फैलाव दूर-दूर तक हो जाता है और बड़ी तादाद में इसके मामले हर साल प्रकट होते हैं। यों तो इसके रोगी दुनिया में कहीं भी पाए जा सकते हैं, पर डेंगू का सबसे ज्यादा खतरा भारतीय उपमहाद्वीप में रहा है। भारत में डेंगू से सबसे ज्यादा प्रभावित दिल्ली रही है। दिल्ली में डेंगू का पहला जबर्दस्त प्रकोप 1996 में हुआ था। तब 10,252 मामले दर्ज हुए थे और 423 मौतें हुई थीं।
पिछले साल पंद्रह हजार से ज्यादा मामले दर्ज हुए, जो बीस साल का सर्वाधिक आंकड़ा था। इनमें से साठ व्यक्तियों की मौत हुई। इससे पहले 2010 में डेंगू के करीब 6200 मामले दर्ज हुए थे, पर सिर्फ आठ लोगों की जान गई थी। यानी दर्ज मामलों के बरक्स डेंगू पीड़ितों के जान गंवाने की घटनाओं में कमी आई है। लोगों में आई जागरूकता से लेकर सरकारी महकमों पर अभियान की तरह काम करने के दबाव तक, इसके कई कारण हो सकते हैं।
विडंबना यह है कि उदारीकरण के तहत इसे कमजोर करने तथा प्राइवेट चिकित्सा तंत्र के व्यवसाय को फलने-फूलने की सुविधाएं मुहैया कराने की ही नीति चलाई गई है। संकट के दिनों में जब पीड़ितों का तांता लगा रहता है, कई प्राइवेट अस्पताल गरीब मरीजों को भर्ती करने से मना कर देते हैं। प्राइवेट लैब जांच की मनमानी फीस वसूलते हैं। दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों में भीड़ बहुत बढ़ जाती है कई जगह पर्याप्त साधन नहीं होते। जाहिर है, लोग डेंगू से ज्यादा चिकित्सा व्यवस्था में व्याप्त घोर गैर-बराबरी तथा लूट के शिकार होते हैं। ऐसे आड़े वक्त में, कुछ मामलों में प्राइवेट अस्पतालों की बाबत नियमन के निर्देश जारी किए जाते हैं। डेंगू, मस्तिष्क ज्वर जैसी बीमारियों से निपटना है, तो सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था को और सक्षम बनाना होगा, साथ ही आपात अवसरों के मद््देनजर निजी चिकित्सा संस्थाओं के लिए भी कुछ आचार संहिता बनानी होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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