राकेश दुबे@प्रतिदिन। स्कूली शिक्षा हो कालेज की शिक्षा देश में इसकी बेहतरी के प्रयास थमे हुए हैं |शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए हमें अच्छे शोध की जरूरत है। आम तौर पर शोध दो तरह के होते है, पहला - शिक्षा क्षेत्र के भीतर से सवालों के जवाब खोजना। इसमें छात्र, शिक्षक और समुदायों के नजरिये को शामिल किया जाता है। दूसरे शोध में अन्य क्षेत्रों के लिहाज से शिक्षा संबंधी मुद्दों की पड़ताल की जाती है। आम तौर पर दूसरी तरह के शोध अर्थशास्त्रियों, राजनीति विज्ञानियों, समाजशास्त्रियों व इस तरह के बौद्धिक पृष्ठभूमि वाले लोग किया करते हैं। अभी भारत में दूसरे तरह के शोध कम हो रहे हैं।
शिक्षा नीति को बेहतर बनाने के लिए हमें पहले तरह के शोध पर पर्याप्त ध्यान देना होगा। इसके लिए शिक्षा व्यवस्था के दो महत्वपूर्ण तत्वों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, जिसमें एक है, शिक्षक। भारत में ज्यादातर शिक्षक छात्रों के ऐसे समूह से दो-चार होते हैं, जो उनके सामने जटिल चुनौतियां पेश करते हैं। एक पारंपरिक तस्वीर यह है कि कोई शिक्षक छह से दस वर्ष के उम्र-वर्ग के करीब 30 अलग-अलग बच्चों को पढ़ा रहा है। यानी, इसका अर्थ है कि वह पहली कक्षा से पांचवीं तक के बच्चों को एक साथ पढ़ा रहा है।
एक रिपोर्ट के अनुसार कई मामलों में बच्चों की भाषा स्कूल की भाषा से बिल्कुल अलग होती है। कई बच्चों के लिए एकमात्र संतुलित खाना वह मध्याह्न भोजन होता है, जो इन्हें स्कूलों में मिलता है। कई बच्चे स्कूल जाने से पहले और आने के बाद अपने दैनिक कामकाज में ही उलझे होते हैं। कोई शिक्षक आखिर इस परिस्थिति से कैसे जूझता है? वह एक शिक्षक के रूप में कैसे प्रभावी बन सकता है? विभिन्न भाषाओं से वह कैसे निपटे? उसे किस तरह की मदद की दरकार है, और कैसे उसे सहायता दी जा सकती है? शिक्षकों व छात्रों की सच्चाई परखकर ही हम शिक्षा व्यवस्था में सुधार ला सकेंगे। हालांकि इन सवालों का कोई सटीक जवाब हमारे पास नहीं है।
सवालों के दूसरे दौर के लिए हमें शिक्षा व्यवस्था को जटिल सामाजिक ताने-बाने के संदर्भ में समझने की जरूरत है। जैसे कि हमारी सामाजिक सच्चाई और शिक्षा व्यवस्था की कमियों व उसकी विविधता के बीच आखिर कैसे हमारे 85 लाख शिक्षकों की क्षमता बढ़ाई जा सकती है? आखिर किस तरह स्कूलों के साथ समुदायों की सहभागिता प्रभावी बने? कैसे स्कूल सांविधानिक मूल्यों का निर्वहन कर सकते हैं? शिक्षक बनाने की प्रक्रिया में आई सड़ांध से हम कैसे निपटें? स्वतंत्र शिक्षक व संस्थान, जिनका इन सवालों से सामना हुआ, उन्होंने एक गहरी व सूक्ष्म समझ विकसित कर ली है। हालांकि ऐसी पड़ताल भारत में काफी कम हुई है। शिक्षा में शोध का फोकस वास्तविक और प्रमुख समस्याओं पर होना चाहिए। अगर कोई शिक्षाविद ऐसे किसी शोध की जिम्मेदारी लेता है, तो वाकई शिक्षा और शैक्षणिक शोधों में एक मूक क्रांति होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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