
इस बार वे कांग्रेस के साथ गठबंधन करके बांग्ला कांग्रेस के नए अवतार तृणमूल को हराने में जुटे हैं। सिर्फ समीकरण और परिस्थितियां बदली हैं। राजनीति का चरित्र जस का तस है। तब अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री बने और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री बने थे। वह 14 पार्टियों का गठबंधन था। माकपा ने पहला काम किया भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और बांग्ला कांग्रेस, दोनों को नीचा दिखाने और जन-विरोधी साबित करने का। सरकार में रहकर हड़ताल, हिंसा को इस हद तक बढ़ाया कि राज्य के मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी को हिंसा के खिलाफ एक दिसंबर, 1969 को 72 घंटे के उपवास पर बैठना पड़ा। ज्योति बसु ने मुखर्जी पर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगाया, तो अजय मुखर्जी ने जवाब में कहा कि हिटलर प्रत्येक आक्रमण से पूर्व पीडि़त देश पर जंगबाज होने का आरोप मढ़ता था और अपने आपको शांतिप्रिय घोषित करता था। अंतत: वह सरकार गिर गई।
वामपंथियों का बुनियादी चरित्र वही है, जिस बात की आलोचना वे कथित दक्षिणपंथी पार्टियों की 'बुर्जुआ' कहकर करते हैं। वास्तव में, उनकी जड़-जमीन, खाद-पानी, सभी कथित दक्षिणपंथियों से कतई भिन्न नहीं है। सड़क पर संघर्ष की बजाय सत्ता को प्राथमिकता एवं सर्वहारा के लिए लड़ने की जगह सांप्रदायिकता से लड़ने का ढोंग इनके वैचारिक व संगठनात्मक आलस्य और पराभव, दोनों का द्योतक है। तभी तो वाम पार्टियां सभी प्रकार की ताकतों से समझौता कर अपनी उपस्थिति और अस्तित्व को बनाए रखने में इस कोने से उस कोने तक पेंडुलम की तरह डोलती रहती हैं। पश्चिम बंगाल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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