
सरकारी बैंकों में ज्यादा एनपीए होने का मूल कारण बड़ी परियोजनाओं व सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न योजनाओं की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए दिया गया कर्ज है। सरकारी बैंकों में अक्सर राजनीतिक हस्तक्षेप के मामले देखे जाते हैं, जबकि निजी बैंक इस तरह के तामझाम व दबाव से मुक्त रहते हैं।
एनपीए केवल बैंकों के लिए नहीं, समूची अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हैं। बहरहाल, आज की तारीख में विमानन, कोयला, बिजली, सड़क, दूरसंचार आदि क्षेत्रों में बैंकों के कॉरपोरेट्स कर्ज फंसे हैं। कर्ज-माफी के बाद कृषि क्षेत्र में भी एनपीए की स्थिति गंभीर हुई है। आज भी किसान अगली कर्ज-माफी का इंतजार कर रहे हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि बैंकों के लिए एनपीए कैंसर के समान जरूर है लेकिन लाइलाज नहीं। बैंकों के लिए एनपीए जरूर बड़ा मर्ज बन गया है, लेकिन अब सरकारी बैंक इसे छुपाने के मूड में नहीं हैं।
एनपीए का स्तर तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक होने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि आज किसी काम की नहीं है। अगर इस राशि की वसूली की जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इजाफा, लाखों लोगों को रोजगार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुंचना, आधारभूत संरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मजबूती, विकास को गति आदि मुमकिन हो सकेगा। पड़ताल से साफ है कि एनपीए को कम करने का उपाय उसके मर्ज में छुपे हैं। बैंक में व्याप्त अंदरूनी तथा दूसरी खामियों का इलाज, बैंक के कार्यकलापों में बेवजह दखलंदाजी पर रोक, मानव संसाधन में बढ़ोतरी आदि की मदद से बढ़ते एनपीए पर निश्चित रूप से काबू पाया जा सकता है।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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