राकेश दुबे@प्रतिदिन। हैदराबाद विश्वविद्यालय में एएसयू और वामपंथी विचारधारा वाले अन्य संगठनों का दक्षिणपंथी विद्यार्थी परिषद से टकराव का रिश्ता पुराना है। अगर विश्वविद्यालय प्रशासन संवेदनशीलता और समझ दिखाए, तो ऐसा विचारधारात्मक टकराव छात्रों को वैचारिक रूप से समृद्ध बना सकता है और उनकी विश्व दृष्टि को व्यापक बना सकता है लेकिन सिर्फ विश्वविद्यालयों में नहीं, समूचे भारत में इन दिनों वैचारिक टकराव या विरोध को सत्ता संघर्ष या वैचारिक हिंसा में बदल दिया जाता है, रोहित वेमुला इसी राजनीति और वैचारिक हिंसा के शिकार हुए।
देश के राजनेता भी इस बात का ख्याल नहीं रखते कि छात्र राजनीति का वास्तविक उद्देश्य छात्रों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विचारों का फायदा पहुंचाना है। उनकी नजर इस बात पर रहती है कि छात्र राजनीति का फायदा उन्हें कैसे मिल सकता है? विश्वविद्यालय चलाने वाले लोग भी अपनी सत्ता के लिए राजनेताओं की कृपा पर इस कदर निर्भर रहते हैं कि उनमें से ज्यादातर शिक्षा की स्वायत्तता और गरिमा की रक्षा को उपेक्षित करते हैं और अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए अकादमिक मूल्यों को तिलांजलि देने से नहीं हिचकिचाते।
हैदराबाद विश्वविद्यालय की काफी प्रतिष्ठा है, अकादमिक क्षेत्रों में उसकी गुणवत्ता जानी मानी है। ऐसे विश्वविद्यालय में अगर किसी दलित छात्र को यह लगता है कि उसके साथ अन्याय हो रहा है और वह आत्महत्या करने की हद तक जा सकता है, तो विश्वविद्यालय के प्रशासन में कोई बड़ी कमी है। रोहित और उनके साथियों ने कई स्तर पर अपना विरोध जताया। ये छात्र भूख-हड़ताल भी कर रहे थे, लेकिन प्रशासन ने पुलिस का सहारा लिया।
यह विद्यार्थी परिषद और संघ परिवार को भी सोचना चाहिए कि आखिर क्यों दलित छात्रों से उनका इतना तीखा टकराव बना हुआ है? केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा बाबा साहब अंबेडकर के सम्मान में इतने भव्य आयोजन करती है, तो जमीनी स्तर पर क्यों उसके समर्थक अंबेडकर को मानने वाले नौजवानों से संवाद नहीं कर पाते? संवाद और एक-दूसरे को समझने की कोशिश की जगह विरोधी विचार वालों को दुश्मन करार देने का जो सिलसिला चल रहा है, उससे टकराव और कड़वाहट पैदा होगी। रोहित वेमुला के अंतिम पत्र की संयत और गरिमामय पीड़़ा को जब तक हम महसूस नहीं करेंगे, देश टकरावों और अलगावों से मुक्त नहीं हो सकता।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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