राकेश दुबे@प्रतिदिन। बेबस भारत सरकार को भी इसका अंदाजा है कि कैंसर, दिल के रोगों, किडनी और लिवर आदि से जुड़ी जीवनरक्षक दवाओं को केमिस्ट और डिस्ट्रीब्यूटर उनकी लागत के गुना ज्यादा कीमत पर बेचते हैं, लेकिन अफसोस कि उन पर नियंत्रण की कोई कोशिश नहीं होती |फार्मा कंपनियां क्रोसिन, डिस्प्रिन जैसी आम जेनिरक दवाओं की कीमतें नहीं बढ़ा पाती हैं क्योंकि इसमें भारी प्रतिस्पर्धा है. लेकिन कैंसर, हॉर्ट, एचआईवी और किडनी-लिवर आदि बीमारियों के इलाज में काम आने वाली दवाओं को मनमानी कीमतों पर बेचा जाता है| सवाल यह है कि क्या सरकार ऐसी दवाओं की महंगाई पर रोकथाम का कोई ठोस इंतजाम कर पाएगी, जो जीवनरक्षक कोटि में आती हैं और जिन्हें हर कीमत पर खरीदना लोगों की मजबूरी है?
निर्माताओ और दुकानदारों की मिलीभगत कर कैंसररोधी दवाओं को उनकी मूल लागत से 20 गुना ज्यादा कीमत पर लोगों को खरीदने के लिए मजबूर करती है| मिसाल के तौर पर भारत सरकार के 2013 के आदेश के मुताबिक 10 मिलीग्राम का डोक्सोरु बिसिन हाइड्रोक्लोराइड इंजेक्शन की कीमत 217 रुपये होनी चाहिए, लेकिन एक फार्मा कंपनी का यह इंजेक्शन नौ हजार रुपये पर बिकता पाया जाता है | इसी तरह, 50 मिलीग्राम का कैंसररोधी इंजेक्शन आई-डॉक्स 4313 रुपये पर बेचा जा रहा है, जबकि इसकी अधिकतम कीमत 1085 रुपये होनी चाहिए|
जीवन रक्षक दवाये दो कारणों से महंगी हैं ,एक तो उन्हें बनाने वाली फार्मा कंपनियां ही उन्हें महंगा बेचती हैं, क्योंकि उन्हें उन पर पेटेंट हासिल हैं और वे एकाधिकार वाली स्थिति में हैं, दूसरे, केमिस्ट और डिस्ट्रिब्यूटर्स का गठजोड़ है, जो अस्पतालों में डॉक्टरों से मिलीभगत करके उन्हीं कंपनियों की दवाओं को पर्चे पर लिखवाता (प्रेस्क्राइब करवाता) है, जो आम मेडिकल स्टोरों पर बेची जाती हैं और जिन पर उन्हें भारी कमीशन मिलता है |सरकार को दवाओ और विशेषकर जीवन रक्षक दवाओं की कीमत तय कर उनकी दरें दुकान पर प्रदर्शित करने की अनिवार्यता के सम्बन्ध को लायसेंस की शर्त में शामिल करना चाहिए |
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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