एक इंग्लिश मीडियम स्कूल जिसकी फीस बड़ी अजीब है

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समरेंद्र शर्मा/रायपुर। अगर आप अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं, तो सबसे पहली फीस की फ्रिक होती है, लेकिन छत्तीसगढ़ में इस साल से एक ऐसा इंग्लिश मीडियम स्कूल खुला है, जिसमें दाखिले के लिए मोटी फीस की नहीं, बल्कि पौधे की जरूरत है। शायद आप चौंक गए होंगे। लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है।

अंबिकापुर से 20 किमी दूर बरगई गांव में कुछ युवाओं ने ऐसा ही स्कूल शुरू किया है, जहां पर एक रुपए फीस नहीं ली जाती। बतौर फीस पैरेंट्स से बच्चे के नाम का एक पेड़ लगवाया जाता है और पेड़ की देखरेख की जिम्मेदारी भी अभिभावक की होती है। इसके बदले बच्चों के यूनिफार्म, कापी-किताबें निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती है। इसी तरह पैरेंट्स से फीस के रूप में समाज हित श्रमदान भी कराया जाता है।

हर मां-बाप की ख्वाहिश होती है कि वे अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी तालीम दे, लेकिन भारी-भरकम फीस और डोनेशन के कारण गरीब माता-पिता अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में नहीं पढ़ा पाते। अब जिस स्कूल के बारे में आपके बताने जा रहे हैं, वहां दाखिले के लिए आपके सामने फीस की समस्या नहीं होगी। यह स्कूल मैनपाट के रास्ते पर अंबिकापुर से 20 किलोमीटर दूर बरगईं गांव में है। इस साल एक जुलाई को शुरू किए गए इस स्कूल शिक्षा कुटीर में प्राइमरी के बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जा रही है।

लहलहाने लगे पौधे
इस स्कूल में पहले साल ही 26 बच्चों ने दाखिला लिया है। फीस के रूप में उनके लगाए पौधे बाड़ियों, बगीचों और तालाब के किनारे लगाए 26 पौधे लहलहाने लगे हैं। फीस के रूप में अभिभावकों से श्रमदान भी कराया जाता है। इस श्रमदान से स्कूल के बगल में खेत के एक हिस्से को पाटकर बधाों के लिए खेल का मैदान बनाया गया और स्कूल के सामने स्पीड ब्रेकर बनाए गए हैं।

पहला बैगलैस स्कूल
यह इलाके का पहला बैगलैस स्कूल है। बधाों का बैग उनकी किताबें और कापियां सब स्कूल में रख लिया जाता है। स्कूल हफ्ते में केवल पांच दिन ही खुलता है। स्कूल की प्राचार्य जानसी सिन्हा ने बताया कि पहले बधाों का बैग स्कूल में रखा गया तो बधो रोते थे और घर में पढने की जिद करते थे। तब बधाों को स्लेट पैंसिल ले जाने की अनुमति दी गई।

यूनिफार्म, किताबें भी मुफ्त
इस संस्था से रायपुर, बिलासपुर और अंबिकापुर के युवा जुड़े हैं। संस्था की तनुश्री मिश्रा बताती हैं कि यहां बधाों को फ्री में शिक्षा नही बल्कि ड्रेस, किताबें, स्लेट पैंसिल, जूते सारी चीजें मुहैया कराई जाती है। स्कूल की एक बेवसाइट और फेसबुक का पेज है। जिनके माध्यम से स्कूल की गतिविधियां सार्वजनिक की जाती हैं। वेबसाइट पर ही सभी दानदाताओं की जानकारी और खर्चे का ब्यौरा है। बच्‍चों को पढ़ाने के लिए आसपास के ही दो शिक्षिकाएं निःशुल्क सेवा दे रही हैं। वे केवल आने-जाने का खर्चा स्कूल से ले रहीं हैं। इन शिक्षिकाओं को हर तीन महीने में प्रशिक्षित शिक्षकों से प्रशिक्षण दिलाई जाती है, जिसमें उन्हें आगामी तीन महीने तक क्या और कैसे पढ़ाना है।

अंग्रेजी में अभिवादन करते हैं बच्चे
स्कूल की प्रिसिंपल जानसी सिन्हा बताती हैं कि 6 महीने में ही यहां के बच्‍चे अल्फाबेट, 1 से 100 तक गिनती बोलना और लिखना सीख चुके हैं। खास बात यह है कि गांव के अनपढ़ माता-पिता के बच्चे अंग्रेजी में अभिवादन करते हैं।

प्रयोग की सराहना
सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय युवाओं की इस कोशिश को आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की संज्ञा देते हैं। उनका मानना है कि धुर आदिवासी अंचल में शिक्षा के क्षेत्र में युवाओं की दस्तक बेदह रचनात्मक है। इलाके के विधायक अमरजीत भगत ने भी युवाओं के इस प्रयास की सराहना करते हुए स्कूल का दौरा किया। उन्होंने स्कूल के लिए हर संभव मदद का भरोसा दिलाते हुए कहा कि इससे बच्चों को शिक्षा तो मिल रही है, साथ ही पर्यावरण को बचाने के लिए प्रयास हो रहे हैं।
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