आरक्षण मांगने से पहले, सोचो ! तुम कहाँ हो ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। आरक्षण के नये पैरोकार हार्दिक पटेल मध्यप्रदेश के रतलाम से निराश होकर लौटे। आरक्षण उनका विषय है, पर वे गंभीर नहीं है। आरक्षण की सत्यता कुछ यूँ हैं, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। बशर्ते, यह साबित किया जा सके कि वे औरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। 1950 में 10 साल तक एससी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की बात कही गई थी।

धीरे-धीरे इसे खत्म करने की बजाय वर्ष 1993 में मंडल कमीशन की सिफारिश पर इसमें और इजाफा करते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग [ओबीसी] को भी शामिल कर लिया गया। एससी और एसटी के कुल 22.5 प्रतिशत आरक्षण के बाद ओबीसी को भी 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया। इसी सिफारिश के तहत आरक्षण के आधार को भी परिभाषित किया गया।

आरक्षण के इन प्रावधानों को लगातार बढ़ाते हुए अब 2020 तक कर दिया गया है। पिछले 65 साल में मदद का यह रवैया न केवल बढ़ता गया है बल्कि इसका दायरा और स्तर भी इतना बढ़ चुका है, जितना कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना तक न की होगी।

इधर, इन सबके बीच सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में जाट आरक्षण पर केंद्र के फैसले को अवैध करार देते हुए अपने ऐतिहासिक फैसले संविधान के अनुच्छेद 15[4] और 16[4] की फिर से व्याख्या करते हुए साफ किया कि देश की आरक्षण नीति से जुड़े तमाम पहलुओं पर गंभीरता के साथ चर्चा हो। प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, समुदाय या क्षेत्र आधारित आरक्षण दिया जाता है, तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन आरक्षण के इस प्रावधान के तहत योग्यता को दरकिनार करने का ही परिणाम है कि ‘ब्रेन ड्रेन’ को लगातार बढ़ावा मिल रहा है।

इसी विषय पर 1970 में टिप्पणी करते हुए पूर्व वाणिज्य सचिव और अमेरिका में राजदूत आबिद हुसैन ने कहा था प्रतिभा के नष्ट होने से बेहतर है कि वह पलायन कर जाए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। अमेरिका जैसे देशों मे भी 'अफरमेटिव एक्शन' के तहत अश्वेत लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था, लेकिन उसके दूरगामी नकारात्मक असर को देखते हुए इसे समाप्त किए जाने की दिशा में साकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं। अपने मौलिक रूप में जो आरक्षण नीति अपनाई गई थी, उसे पूरी तरह खारिज करने के लिए यह बहस नहीं है। सच तो यह है कि समय के साथ आरक्षित वर्ग के भीतर एक अभिजात्य वर्ग ने पैठ जमा ली है और सामाजिक न्याय के फायदों को निचले तबके तक पहुंचने से रोक दिया। इस नये अभिजात्य वर्ग को रोकने से ही इस समस्या का निदान निकलेगा।

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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