राकेश दुबे@प्रतिदिन। क्रेडिट सुईस नामक एजेंसी की वैश्विक धन बंटवारे के बारे में जारी रिपोर्ट ने तो भारतीयों की बेचैनी और बढ़ा दी है| इस रिपोर्ट पर यकीन करें तो भारत में सबसे धनी एक प्रतिशत आबादी के पास देश का 53 प्रतिशत धन है। वर्ष 2000-2015 की इस अवधि में टॉप दस प्रतिशत आबादी के पास कुल उत्पन्न राष्ट्रीय धन का 81 प्रतिशत हिस्सा सिमट कर रह गया है|
उदारीकरण के इस दौर में बड़ी जनसंख्या फटेहाल स्थिति में जीने को मजबूर है| दिलचस्प यह है कि इस दौर में देश में पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए, फिर दस वर्ष तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए और अब पुन: सोलह महीनों से एनडीए की ही सरकार सत्ता में रही है. किंतु सभी सरकारों का आर्थिक रुझान एक जैसा ही रहा है। सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने का हर वक्त दम भरने वाली इन सरकारों के दौर में गैरबराबरी घटने के बजाए बढ़ती रही है. इसके कारण चंद लोगों के हाथों में देश की अधिकांश पूंजी का सिमटना एक खतरनाक संकेत है।
इसका साफ मतलब यही है कि देश में जितना राष्ट्रीय धन पैदा हो रहा है, उसका बड़ा हिस्सा चंद लोगों की तिजोरियों में जा रहा है| इसके पीछे भ्रष्टाचार प्रमुख कारण है| भारत में इस असमानता से तंगहाल लोग अपना आक्रोश तरह-तरह से सरकारों के समक्ष जता भी रहे हैं| वर्ष 2011 में समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वत:स्फूर्त आंदोलन हो चुका है| उसी जनदबाव में तत्कालीन यूपीए सरकार ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लोकपाल के गठन का फैसला किया था| वर्ष 2014 के आम चुनाव भ्रष्टाचार और विकास का सवाल चुनावी मुद्दा बन चुका है|
उस समय प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के स्टार प्रचारक और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘न खाएंगे न खाने देंगे’ का भरोसा मतदाताओं को देते हुए विदेशों में जमा कालेधन को देश में वापस लाने की घोषणा की थी| अभी तक न तो लोकपाल अस्तित्व में आ पाया है और न ही विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने की दिशा में सार्थक पहल ही दिख रही है| दिलचस्प यह है कि कालेधन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे जानेमाने अधिवक्ता राम जेठमलानी आज भाजपानीत राजग सरकार पर ही इस दिशा में शिथिलता बरतने का खुला आरोप लगा रहे हैं| इतना ही नहीं, विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी इन सवालों को लेकर सरकार को घेरने लगी हैं|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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