राकेश दुबे@प्रतिदिन। सरकारी स्तर पर शैक्षिक उन्नयन की नीतियां बनाई जाती हैं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा नित ही कोई न कोई नियम निकाल कर उच्च शिक्षा गुणवत्ता लाये जाने के प्रयास किये जाते हैं ये सरकारों के दावे। यदि गंभीरता से देखा जाये तो प्रत्येक क्षेत्र में शोध का अपना महत्त्व है और उससे ज्यादा अध्यापन का महत्त्व है, पर ऐसा हो नहीं रहा है। पहले विश्वविद्यालयों की तरफ से लगातार उत्कृष्ट शोधकार्यों के लिए प्रयास किये जाते रहे हैं , अब उन पर वास्तविक रूप से अमल नहीं हो रहा है।
उच्च शिक्षा में गिरावट की इस स्थिति का रहा-सहा कचूमर निजी शैक्षणिक संस्थानों ने शामिल होकर निकाल दिया है। ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ की तर्ज़ पर इनके द्वारा शिक्षा व्यवस्था को संचालित किया जा रहा है। गाँव-गाँव, खेतों के मध्य खड़ी होती इमारतें, तमाम सारे पाठ्यक्रमों का संचालन, हजारों-हजार विद्यार्थियों का प्रवेश किन्तु अध्यापकों के नाम पर जबरदस्त शून्यता, स्थिति की भयावहता, उच्च शिक्षा के माखौल का इससे ज्वलंत उदाहरण क्या होगा कि महाविद्यालय में किसी विषय में अनुमोदन किसी और व्यक्ति का है, उसके स्थान पर महाविद्यालय में पाया कोई और व्यक्ति जाता है। विश्वविद्यालय स्तर से अनुमोदित व्यक्ति न केवल एक महाविद्यालय में ही नहीं वरन कई-कई दूसरे विश्वविद्यालयों के महाविद्यालयों में अनुमोदित है। बिना योग्यता सूची प्रवेश की सहजता, कक्षाओं में न आने की स्वतंत्रता, नक़ल-युक्त परीक्षाओं की व्यवस्था, उड़नदस्ता द्वारा पकड़े जाने पर विश्वविद्यालय से निर्दोष साबित करवाए जाने की सुविधा... सोचिये ऐसे में किस नियम से, किस विधान से, कौन सी सरकार, कौन सा आयोग उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार कर देगा?
स्थिति अत्यंत विकराल है, शिक्षा के साथ घनघोर मजाक हो रहा है और ऐसा महज उच्च शिक्षा क्षेत्र में ही नहीं अपितु शिक्षा के आरंभिक बिन्दु से ही हो रहा है. शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करने का दुष्परिणाम है कि जहाँ किसी समय हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था गौरव का विषय हुआ करती थी, आज हम विश्व के सैकड़ों सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में भी शामिल होने से वंचित रह जा रहे हैं| ऐसी व्यवस्था के लिए किसी एक को दोष देना उचित नहीं है, एक तरफ सरकारें हैं जिनके पास कोई जमीनी नीति नहीं है, एक तरफ आयोग है जिसके पास क्रियान्वयन के कोई ठोस बिन्दु नहीं हैं, एक तरफ राज्य सरकारें हैं जो किसी भी नीति पर केन्द्र सरकारों से दुश्मनी निकालती रहती हैं, एक तरफ विश्वविद्यालय हैं जिनके पास नीति-निर्देशक नहीं हैं, एक तरफ महाविद्यालय हैं जिनके पास नियंत्रण नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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