राकेश दुबे@प्रतिदिन। जनगणना के आंकड़े फिर जारी हुए हैं, तस्वीर कोई बहुत ज्यादा बदली नहीं है देश की आबादी में में गरीब कितने हमेशा विवादास्पद और लम्बी चर्चा का विषय रहा है। मतभेद होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि आखिरकार सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि गरीबी के आकलन का पैमाना क्या है और सरकार क्या दिखाना चाहती है।
सत्ता प्रतिष्ठान और नीति नियंताओं की दिलचस्पी सदा इस बात में रही है कि देश में गरीबी को कम से कम और तेजी से घटते हुए दिखाया जाए| जिससे उनके प्रतिष्ठान की विश्वसनीयता बने।
यही कारण है कि आंकड़ों में गरीबी वास्तविकता से कम दिखती या दिखाई जाती रही है। एक बहस गरीबी के जातिगत पहलू को लेकर भी जारी है। सच यह है कि गरीब हर वर्ग में हैं | सामाजिक-आर्थिक जनगणना के नतीजों ने इसकी पुष्टि की है। वर्ष १९३१ से यानी जब से देश में जनगणना शुरू हुई, पहली बार २०११ में सामाजिक-आर्थिक आयाम को भी शामिल किया गया।
इस जनगणना के मुताबिक ग्रामीण भारत में एक तिहाई परिवार गरीब हैं और ऐसा हर पांचवां ग्रामीण भारत के सवा तेरह फीसद परिवार ऐसे हैं जो सिर्फ एक कमरे के कच्चे मकान में रहते हैं।
अगर राज्यवार देखें तो ग्रामीण आबादी में गरीबों का अनुपात सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में है। दूसरे नंबर पर छत्तीसगढ़ है। फिर बिहार और उत्तर प्रदेश का स्थान आता है। आकलन में रोजगार, शिक्षा, आमदनी और आमदनी का स्रोत, अनुसूचित जाति-जनजाति के वर्ग से संबंध, मकान, संपत्ति आदि कई पैमाने शामिल किए गए थे। इस आकलन में आए निष्कर्षों को सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं खासकर बीपीएल परिवारों के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं का आधार बनाने की बात कही गई है। पर यह कोई नई बात नहीं है। तमाम योजनाओं में जनगणना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग होता रहा है।
सवाल यह है कि क्या अब भी गरीबी का ठीक अंदाजा लगाने का गंभीर प्रयत्न हुआ है। दूसरे, क्या हमारी आर्थिक-सामाजिक नीतियां ऐसी हैं जो गरीबी उन्मूलन पर केंद्रित हों? मनरेगा और सामाजिक क्षेत्र के योजनागत व्यय में कटौती किस ओर इशारा करती है? ताजा आंकड़े रंगराजन समिति के निष्कर्षों से मेल खाते हैं, जिसका गठन यूपीए सरकार ने किया था। रंगराजन समिति ने तय किया कि अगर कोई ग्रामीण व्यक्ति बत्तीस रुपए रोजाना से अधिक खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं है। उससे पहले तेंदुलकर समिति ने गरीबी की रेखा प्रति ग्रामीण व्यक्ति के लिए सत्ताईस रुपए रोजाना तय की थी। लेकिन क्या बत्तीस रुपए के पैमाने को भी संतोषजनक कहा जा सकता है?
जब यह सवाल उठता है कि गरीबी के आकलन में आय या खर्च की सीमा ऐसी क्यों मानी गई है जिसमेंआदमी के लिए पेट भरना भी दूभर हो, तो जवाब में कहा जाता है कि गरीबी का मापदंड देश-विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप ही हो सकता है। हमारे नीति नियामक कुछ सेवाओं, कुछ संस्थानों और कुछ शहरों को विश्वस्तरीय बनाने का दम भरते रहते हैं। पर एक डॉलर प्रतिव्यक्ति रोजाना खर्च के गरीबी के अंतरराष्ट्रीय पैमाने को लागू करने के लिए कभी तैयार नहीं होते।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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