राकेश दुबे@प्रतिदिन। यूँ तो मच्छर कई लाख साल से दुनिया में मौजूद हैं, लेकिन मलेरिया की शुरुआत करीब 10000 साल पहले तभी हुई, जब इंसान ने खेती करना शुरू किया, यानी मानव सभ्यता की शुरुआत के साथ ही मलेरिया की भी शुरुआत हुई।
आज भी मलेरिया काबू में नहीं आया है और हर साल करोड़ों लोग इसके शिकार होते हैं। अनुमान है कि 60000 से एक लाख लोग हर साल मलेरिया से मरते हैं। अब इस बीमार से निजात पाने के लिए टीका बन गया है। यह टीका अफ्रीका में कारगर होगा। भारतीयों को इस टीके का फायदा नहीं मिलेगा, क्योंकि मलेरिया परजीवी की जिस प्रजाति प्लाज्मोडियम फाल्सिपेरम के खिलाफ यह कारगर है, वह प्रजाति भारत में आम नहीं है। वैसे भारत में इस दिशा में कोई शोध नजर में नहीं है, हाँ मलेरिया से मरने की खबर जरुर हर 6 महीने में सुनने में आती है।
भारत में प्लाज्मोडियम वाइवेक्स नामक प्रजाति आम तौर मिलती है। प्लाज्मोडियम फाल्सिपेरम ज्यादा खतरनाक और जानलेवा प्रजाति है, इसलिए उसके खिलाफ टीका बनाने पर ज्यादा जोर था। लगभग तीस साल में 2600 करोड़ रुपये टीका विकसित करने पर खर्च किए गए, तब जाकर यह पहली कामयाबी मिली है। यह टीका भी सिर्फ 36 प्रतिशत लोगों में प्रतिरोध पैदा करने में कामयाब है।
मलेरिया का टीका बनना इतना मुश्किल नहीं था, पर यह गरीब देशों की बीमारी है और दवा कंपनियों की दिलचस्पी उसमें इतनी नहीं थी। अगर अमीर देशों की बीमारियों या एड्स के मुकाबले मलेरिया के टीके की खोज में लगे पैसे को देखें, तो यह कुछ भी नहीं है। मलेरिया का टीका बनाने के लिए प्रकृति ने ही संकेत दे रखे हैं। जिन लोगों को लंबे वक्त तक मलेरिया होता है, उनके शरीर में धीरे-धीरे अपने आप मलेरिया का प्रतिरोध विकसित हो सकता है।
इसका अर्थ है कि इंसानी शरीर में मलेरिया का मुकाबला करने वाले तत्व होते हैं। दिक्कत यह है कि मलेरिया का परजीवी शरीर में बड़ी तेजी से अपनी संख्या बढ़ाता है और अपने जीवन चक्र में वह कई रूप बदलता है।
वैसे एक सदी पहले मलेरिया परजीवी का इस्तेमाल सिफलिस जैसी बीमारियों के इलाज के लिए टीके के रूप में करने की कोशिश की गई थी। इन बीमारियों के पीड़ित लोगों के शरीर में मलेरिया परजीवी डालकर इलाज की ईजाद करने वाले डॉक्टर को नोबेल पुरस्कार भी मिला।
मगर इलाज का यह तरीका तब रोक देना पड़ा, जब यह देखा गया कि मरीजों की मूल बीमारियों का इलाज तो अक्सर हो जाता था, लेकिन लगभग 15 प्रतिशत मरीज मलेरिया से मर जाते थे। यह नया टीका एक बार प्रचलन में आ जाने के बाद इसको ज्यादा प्रभावी बनाने की कोशिशें भी कामयाब हो सकती हैं। भारत सरकार और निजी क्षेत्र दोनों के लिए यह एक चुनौती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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