सैनिक हैं, उद्ध्योगपति या नेता नहीं

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। सैनिकों की बुनियादी जरूरतों को लेकर हमारी सरकारें कभी गंभीर नहीं रही? वन रैंक-वन पेंशन की मांग इसका एक उदाहरण है। वर्ष 1980 के आसपास पहली बार उठी इस मांग को आज करीब 35 साल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक आश्वासनों के सिवा यह मांग पूरी नहीं हुई है। अदालतें भी इसके पक्ष में निर्देश दे चुकी हैं। 

वन रैंक-वन पेंशन का अर्थ है कि अलग-अलग समय पर सेवानिवृत्त हुए एक ही रैंक के दो फौजियों की पेंशन राशि में बड़ा अंतर न रहे। लेकिन अभी एक ही पद से अलग-अलग समय में सेवानिवृत्त हुए फौजियों की पेंशन में दोगुने तक का अंतर है। ऐसे में फौजियों की समान पेंशन की मांग जायज ही लगती है। ये बेचारे सांसद या विधायक तो है नहीं, कि बिना मांगे सब कुछ मिल जाये। 

दशकों से इंतजार के बावजूद सैनिकों की यह मांग पूरी नहीं हुई है, तो इसकी एक वजह शायद यह है कि फौजी कोई बड़ा वोट बैंक नहीं हैं! वन रैंक-वन पेंशन वर्ष 2004 में यूपीए का चुनावी मुद्दा था, लेकिन 2004 आते-आते तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसे इसे ठंडे बसते में डाल दिया। इसी कारण वर्ष 2009 में देश के पूर्व सैनिकों ने राष्ट्रपति को न सिर्फ हजारों मैडल वापस किए| वर्ष 2013 आते-आते थोड़ा और दबाव बना। चुनावी वर्ष 2014 के बजट में इसके लिए 500 करोड़ रुपये की घोषणा हुई। लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक जनसभा में पूर्व सैनिकों से वायदा किया कि उनकी पार्टी के सत्ता में आते ही वन रैंक-वन पेंशन योजना को फौरन लागू किया जाएगा। अब रेडियो पर मन की बात में माना कि वह इसे जितना मानते थे, उतना सरल विषय नहीं है, बल्कि पेचीदा है। 

इसे पूरा करने के लिए अब करीब 20 हजार करोड़ रुपये की जरूरत बताई जा रही है। तो क्या उद्योग जगत को हर साल लाखों करोड़ रुपये की रियायतें देने वाली सरकार सरहद की रक्षा करने वाले सैनिकों के लिए इतना भी खर्च नहीं कर सकती? 

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