महिलाओं की न्याय तक पहुंच का सवाल

रचना पाटीदार। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में उन्हें न्याय नहीं मिल पाता, इस बात को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश एच.एल. दत्तू की अध्यक्षता वाली एक पीठे ने अपने एक फैसले में कहा है कि ‘‘महिलाओं पर हिंसा के मामलों में दोषियों को उनके अपराधों की गंभीरता और परिणाम के अनुसार सजा नहीं मिलती है। अतः अदालतों द्वारा सजा देने का मापदण्ड सख्त होना चाहिए।‘’ सर्वोच्च न्यायलय के इस फैसले से निचली अदालतों की न्यायिक प्रक्रिया और उससे जुडे़ विभिन्न तंत्रों की कार्य प्रणाली पर कई सवाल खडे होते है, जिसमें पुलिस अनुसंधान लोक अभियोजन और चिकित्सकीय परीक्षण जैसे विभिन्न पहलू शामिल है।

यह चिंता का विषय है कि उच्चतम न्यायालय को यह बात स्वीकार करनी पड़ी है कि महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों में कई बार उन्हें उचित न्याय नही मिल पाता। भारत के सबसे बड़े न्यायालय की इस चिंता ने पुलिस प्रशासन  को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। हिंसा की दशा में महिलाओं को न्याय तक पहुंचने के लिये पुलिस थाने का पड़ाव पार करना पड़ता है जो सबसे ज्यादा मुश्किल होता है। इस पड़ाव पर कई बार उन्हें अपमान भी झेलना पड़ता है। यह बात इंदौर शहर की पीड़ित महिलाओं से चर्चा करने पर आई। यहां कि एक बस्ती में निवास करने वाली विमला बाई ने बताया कि ’’पति द्वारा पिटाई करके घर से निकाल दिये जाने के बाद जब मैं पुलिस थाने पहुंची तो पुलिसकर्मियों का कहना था कि पति ने पिटाई कर दी तो क्या हुआ, इसकी भी कोई रिपोर्ट लिखी जाती है!’’ इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने वाली पुलिस से क्या कोई महिला न्याय कि उम्मीद कर सकती हैॽ पुलिस का यह दृष्टिकोण उसके द्वारा किये गए आपराधिक अनुसंधान को भी प्रभावित करता है, जिससे कई बार आरोपी न्यायालय में दोषमुक्त हो जाता है। सर्वोच्च न्यायलय का उपरोक्त फैसला इस संदर्भ महत्वपूर्ण रूप से प्रासंगिक है जो पुलिस व्यवस्था में सुधार से लेकर उन्हे महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की जरूरत को प्रतिपादित करता है। 

कई बार तो महिला की एफआईआर ही दर्ज नही की जाती और यदि कही एफआईआर दर्ज हो भी जाती है तो मारपीट, गालीगलौच, धमकी, छेडछाड जैसे अपराधों को तो हस्तक्षेप के अयोग्य करार देकर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। कतिपय संज्ञेय अपराधों में भी पुलिस द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पीड़ित को न्याय नही दिलवा पाती है। मार्च 2015 में इंदौर की एक नाबालिक लड़़की के अपहरण की  घटना से यह बात साबित होती है, जिसमें 14 वर्षीय एक बालिका को राजस्थान ले जाकर वहां 30 वर्षीय व्यक्ति से विवाह करवाने के बाद भी पुलिस ने आसानी से उस व्यक्ति पर प्रकरण दर्ज नही किया। सामाजिक कार्यकर्ताओं के दबाव डालने पर पुलिस ने उस व्यक्ति के विरूद्ध 1 माह बाद प्रकरण दर्ज किया।  

हमारी न्यायालयीन प्रक्रिया में भी कई ऐसे पहलू मौजूद हैं, जो महिला को न्याय से वंचित कर देते हैं। स्पष्ट है कि लोक अभियोजक की पीड़िता को न्याय दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किन्तु परिस्थितिवश उन्हें पूरी मुस्तैदी से अपनी भूमिका निभाने में दिक्कत होती हैं। आमतौर पर पीड़ित व लोक अभियोजक के बीच संवाद कम होता है तथा कई बार संवादहीनता की स्थिति होती है। कई बार तो पीड़िता को पता ही नही होता कि उसका वकील कौन हैॽ  यदि हम पूरे न्यायालयीन के ढ़ाचे को देखें तो पीड़ित की पैरवी के लिए  जिला एवं सत्र न्यायालय में एक लोक अभियोजक और दो या तीन सहायक लोक अभियोजक ही होते हैं। जो वहां सेकड़ों प्रकरणों के लिए अपर्याप्त हैं, जबकि आरोपी की पैरवी के लिए हजारों की तादात में वकील होते हैं। इस दशा में अदालत में जितनी मजबूती से आरोपी का पक्ष रखा जाता है, उतनी मजबूती से पीड़िता का पक्ष प्रस्तुत नहीं हो पाता है। 

न्यायालय में प्रकरणों का लम्बे समय तक चलना भी न्याय की दिशा में एक बड़ी बाधा हैा  न्याय मूर्ति कृष्णा अय्यर ने एक फैसले में कहा था कि ‘‘समय पर न्याय नही मिलना न्याय नही होने के समान है।‘’  स्पष्ट है कि अदालत में कई मामले वर्षोंतक चलते हैं। वर्तमान में देश के विभिन्न न्यायालयों में कुल मिलाकर 3 करोड़ 13 लाख मामले लंबित हैं। इनमें से सर्वोच्च न्यायालय में 63750 मामले तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों में 44 लाख मामले लंबित है वहीं निचली अदालतों में 2 करोड़ 68 लाख मामले लंबित है। कुल मामलो में 30 प्रतिशत मामले 5 वर्ष पुराने हैं।   

महिलाओं की न्याय तक पहुंच बनाने के लिए यह जरूरी है कि सरकार को भी गंभीरता से कुछ कदम उठाने होंगे। इसमें पुलिस सुधार एक बड़ी आवश्येकता है।  आमतौर पर पुलिस को तकनीकी प्रशिक्षण तो दे दिया जाता है, किन्तु महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की कोई बात उनके प्रशिक्षण पाठ्यक्रम मे शामिल नहीं है। जबकि इस विषय पर उन्हें विशेष रूप से प्रशिक्षित किये जाने की जरूरत हैं। इसी तरह लोक अभियोजन के मामले में भी सरकार को लोक अभियोजक की संख्या बढ़ाने एवं उन्हें महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए नीतियां बनानी होंगी।  

रचना पाटीदार 
स्वतंत्र पत्रकार
जी -48, स्कीम नं. 97, स्लाईस-6, 
रेत मण्डी, राजेन्द्र नगर, इंदौर (मध्य पदेश) 

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !