नरसिंहराव की समाधि के बहाने परिवार की संकीर्ण सोच

डाॅ. अजय खेमरिया। दिल्ली से प्रकाशित एक तथाकथित राष्ट्रीय दैनिक में पिछले दिनों एक खबर पहले पेज पर प्रकाशित हुयी जिसमें बताया गया कि मोदी सरकार नई दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. पी.व्ही. नरसिंहराव की समाधि बनाने जा रही है।

इस खबर के साथ ही वामपंथी और कांग्रेसी सम्भल रखने वाले इस अखबार ने इस निर्णय को सांप्रदायिकता की राजनीति से जोड़ा और चिंता जताई की ऐसा करने से साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है. अगले दिन आजम खांन का बयान भी पहले पन्ने पर छपा कि भाजपा बावरी विध्वंस कराने के बदले नरसिंहराव का अहसान चुकाना चाहती है।

राजभाषा पुरूस्कारों से राजीव और इंदिरा के नाम हटाये जाने को फासीवादी बताने वाली कांग्रेस क्या अपने इस पूर्व प्रधानमंत्री को ‘बावरी विध्वंस’ का खलनायक मानती है? पार्टी द्वारा जो रवैया भारत के इस प्रधानमंत्री के प्रति अब तक रहा है उससे तो यही साबित होता है कि पी.व्ही. नरसिंहराव उसके लिए एक अछूत नेता था और कोई भी उन्हें कांग्रेस के मंच से याद नहीं रखना चाहता।

सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी और देश के लिए पी.व्ही. नरसिंहराव का योगदान कुछ था या नहीं? किसी कांग्रेसी या उसकी ओर झुके लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी के लिए स्व. नरसिंहराव बावरी विध्वंस के खलनायक से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन यह धारणा सिर्फ नेहरू-गांधी खानदान की स्वाभाविक राजनीतिक ताकत और छद्म धर्म निरपेक्षता की बुनियाद पर ही टिकी है।

सच तो यह है कि स्व. नरसिंहराव जैसा प्रतिभाशाली व्यक्तित्व कांग्रेस में अपवाद स्वरूप ही रहा है. 14 भारतीय भाषाओं के विद्वान पी.व्ही. नरसिंहाराव पहले दक्षिण भारतीयप्रधानमंत्री थे जिन्होंने इस मिथ को तोड़ा था कि भारत का प्रधानमंत्री होने के लिए नेहरू-गांधी वंश या हिन्दीभाषी होना जरूरी है. वे तेलगूभाषी होने के बावजूद हिन्दीभाषी की तरह व्यवहार करते थे. वे अकेले ऐसे कांग्रेसी थे जो जीवनभर पार्टी कैडर के साथ जुड़े रहे. अन्यथा शिखर पर स्थापित कांग्रेस के अधिकतर चेहरे अपनी सुविधा के हिसाब से राजनीति करते रहे हैं।

इस देश के लिए मौजूदा आर्थिक सुधारों की नींव रखने वाले इस पूर्व प्रधानमंत्री को इतिहास हमेंशा एक दृढ़ संकल्प शक्ति वाले प्रधानमंत्री के रूप में याद करेगा। उनके कार्यकाल को भ्रष्टाचार के कारनामों के लिए कटघरे में खड़ा करने वाले कांग्रेसी शायद भूल जाते हैं कि 1996 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 140 के लगभग सीटें प्राप्त हुयी थी जबकि परिवार के रिमोट से चालित मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल पर देश की जनता ने कांग्रेस को 44 सीटों के शर्मनाक आंकड़े पर लाकर पटक दिया.

जिन मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में घोटाले की बाढ़ लगी पहली बार निवर्तमान प्रधानमंत्री को किसी घोटाले के बतौर आरोपी न्यायालय ने समन जारी कर तलब किया उसके समर्थन में सोनिया गांधी अपने नेताओं की फौज लेकर पैदल मनमोहन सिंह के घर तक गयीं आखिर क्यों?


सीधा सा गणित है। पांच साल तक पी.व्ही. नरसिंहराव कभी अपनी निष्ठा बताने  10 जनपथ पर नहीं गए. वे शास्त्री के बाद पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे जो प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू-गांधी वंश की छाया से दूर थे। जब 1991 में राजीव गांधी ने उनका लोकसभा का टिकट तक काट दिया था तब वे वापिस अपने घर जा रहे थे 21 मई को रास्ते में उन्हें राजीव गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या की जानकारी मिली.

कमलनाथ वह शख्स थे जिन्होंने बड़े जतन से उन्हें दिल्ली आने के लिए राजी किया था। राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी चाहती थी कि डाॅ. शंकर दयाल शर्मा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाये. प्रणब मुखर्जी, अजुर्न सिंह मूपनार, एन.डी. तिवारी जैसे दिग्गजों के बीच यदि पी.व्ही. नरसिंहराव कांगेस के अध्यक्ष और फिर प्रधानमंत्री चुने गये तो यह उनके व्यक्तित्व की खासियत और पार्टी के प्रति वफादारी का ही नतीजा होगा।

जिन राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों में पी.व्ही. नरसिंहराव ने देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी को संभाला था वहां कोई असाधारण कौशल वाला ही सफल हो सकता था। नरसिंहराव इस कसौटी पर सफल रहे। अल्पमत के बावजूद उन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलायी। यह विवाद का विषय हो सकता है कि बहुमत का जुगाड़ नैतिकता के परे जाकर किया गया लेकिन आज इसे कौन नकार सकता है कि तत्समय पांच साल एक ही सरकार का चलना भारत के लिए अत्यावश्यक था।

जिन आर्थिक हालातों से देश गुजर रहा था वहां उदारीकरण का साहस दिखाना एक अल्पमत सरकार के प्रधानमंत्री के राजनीतिक और रणनीतिक कौशल को स्वयंसिद्ध करता है. आज पूर्ण बहुमत की मौजूदा सरकार भी बिल पास कराने में सांसत में नजर आ जाती है। यह बहस का विषय हो सकता है कि भारत में नये आर्थिक सुधार कितने उपयोगी रहे लेकिन क्या 1996 के बाद की कोई भी सरकार नरसिंहराव सरकार की आर्थिक नीतियों के विरूद्ध जाने का विचार तक कर पाई है।

कुल मिलाकर पी.व्ही. नरसिंहराव भारत के ऐसे प्रधानमंत्री तो है ही जिन्होंने बदलते वक्त के साथ इस देश की राजनीति और अर्थनीति को ढालने का काम किया। मौजूदा कांग्रेस उन्हें कभी भी याद करना नहीं चाहेगी क्योंकि वे वंश परंपरा के चमत्कारिक मिथक को चुनौती देते हैं। वे वंश परंपरा के इतर आर्थिक राजनीतिक कौशल के कांग्रेसी संस्करण जो हैं। वे कांग्रेस में सर्वानुमति और समावेशी व्यक्ति के रूप में स्वयंसिद्ध है? वे विरोधियों में सर्वाधिक स्वीकार नेता है कौन नहीं जानता कि देश के प्रधानमंत्री रहते हुये नरसिंहराव ने अटलजी को सार्वजनिक मंच से अपना राजनीतिक गुरू कहा था।

क्या कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री अपने विरोधीदल के नेता के प्रति इतनी उदारता दिखा सकता है? क्या हमें याद नहीं जब माधवराव सिंधिया, कमलनाथ,   एन.डी. तिवारी, अजुर्न सिंह मूपनार, चिदम्बरम जैसे घाघ परिवार भक्तों को एक समय कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाकर अपनी ताकत का अहसास नरसिंहराव करा चुके थे। क्या आपातकाल थोपने वाला परिवार, निर्वाचित मुख्यमंत्रियों को घर के बाहर धूप में खड़ा करने वाले परिवार के अलावा भी कोई व्यक्ति कांग्रेस में अध्यक्ष के रूप में इस ताकत के साथ स्वीकार्य होगा तो परिवार के समानांतर नरसिंहाराव का इतिहास लिखने की हिम्मत देवकांत बरूआ की इस पार्टी में कौन कर सकता है?

इसीलिए कांग्रेस में नरसिंहराव एक भुला दिए गए अध्यक्ष और प्रधानमंत्री है। उन्हें भुलाने के लिए कांग्रेस और संबद्ध बुद्धिजीवी उन पर बावरी विध्वंस के लिए संघ भाजपा से फिक्सिंगका मनगंढ़त और झूठा आरोप लगाते हैं ताकि तुष्टिकरण और सेक्यूलरिज्म की कांग्रेसी दुकान भी चलती रहे और परिवार के समक्ष किसी दूसरी सशक्त लाईन भी न खींच पाये।

यही कारण है कि जब मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते पी.व्ही. नरसिंहराव का दिल्ली में देहांत हुआ तो कांग्रेस के फैमिली मैनेजरों ने उनके परिवार पर दबाव डाला कि वे अंतिम संस्कार दिल्ली में न करकर आंध्र के उनके घर बारंगल में करें। सोनिया गांधी नहीं चाहती थी कि उनके परिवार की समाधियों के आसपास नरसिंहराव की समाधि बने क्योंकि हर साल राजीव, इंदिरा, नेहरू की जन्म(पुण्यतिथियों) पर उन्हें उस नरसिंहराव की समाधि पर जाना पड़ेगा जिसने उनके स्वयं और परिवार के प्रभुत्व को सीधी सफल चुनौती दी है।

जो मनमोहन सिंह को कभी नरसिंहराव के सामने रिटायरमेंट के बाद यूजीसी का चैयरमैन बनाने की अर्जी लेकर गए थे. जिन्हें बाद में नरसिंहराव ने अपना वित्त मंत्री बनाकर प्रधानमंत्री के लायक काठी दी वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया गांधी के सामने इस बात का विरोध नहीं कर पाये कि पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्री के नाते नरसिंहराव का अंतिम संस्कार दिल्ली से बाहर करना गलत होगा।

बाद में जब उनका अंतिम संस्कार बारंगल की जगह हैदराबाद में किया गया तब यह प्रमाणित हो गया कि सोनिया गांधी की ही चली। इससे पूर्व वी.पी. सिंह जिन्होंने बोफोर्स का मुद्दा उठाकर परिवार को चुनौती दी थी उनका अंतिम संस्कार भी इलाहाबाद में किया गया था. वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय के अनुसार चंद्रशेखर का अंतिम संस्कार बलिया में कराये जाने के लिए भी उनके परिजनों पर सरकार ने खासा दबाव डाला था।

असल में आज तक नेहरू वंश ने इस देश को एक जागीर की तरह ही चलाया है. कांग्रेस पार्टी आजादी के बाद फैमिली लिमिटेड में बदल चुकी है. और प्रणब मुखर्जी या नरसिंहराव जैसे लोग विस्मृत करने वाली सूची में डाल दिए गए हैं क्योंकि परिवार के आगे जन्मजात या अर्जित प्रतिभा, कौशल, कैसे स्वीकार किया जा सकता है? आजादी से पहले के काल और फिर नेहरू युग तक सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, जगजीवन राम, आंबेडकर के साथ जो हुआ इसका उदाहरण है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अभिनंदन किया जाना चाहिए कि उन्होंने सरदार पटेल, नेताजी, आंबेडकर जैसी महान विभूतियों को पुनः प्रतीष्ठित करने का कदम उठाया है। पी.व्ही. नरसिंहराव की समाधि दिल्ली में राजघाट पर बनाने का उनका निर्णय भी इस अधिनायकवादी परिवार की सोच पर प्रहार तो है ही साथ में एक प्रधानमंत्री के देश के प्रति योगदान को रेखांकित करने की नैतिक जिम्मेदारी को निर्वहन भी है।

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