राकेश दुबे@प्रतिदिन। गुजरात विधानसभा ने एक बार फिर वैसा ही आतंकवाद विरोधी बिल पास करवा लिया है, जो इससे पहले तीन बार राष्ट्रपति द्वारा नामंजूर किया जा चुका है। मंगलवार को पारित विधेयक का नाम गुजरात कंट्रोल ऑफ टेररिजम ऐंड ऑर्गनाइज्ड क्राइम यानी गुजटोक है, जो पहले पारित किए गए बिल गुजकोक से अलग है। नाम बदले जाने के बावजूद इसमें प्रावधान सारे वही रखे गए हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल द्वारा दिए गए संशोधन के सुझावों को भी अनदेखा कर दिया गया है।
खास तौर पर पुलिस अधिकारियों को टेलिफोन बातचीत टैप करने, इस बातचीत को अदालत में साक्ष्य मानने और पुलिस हिरासत में दिए गए बयान को सबूत मानने संबंधी प्रावधानों को राष्ट्रपति ने अमान्य कहा था। इसके अलावा भी इस विधेयक में खुद को बेकसूर साबित करने की जिम्मेदारी अभियुक्त पर डाले जाने तथा बगैर आरोपपत्र दायर किए हिरासत में रखने की अवधि को 90 दिन से बढ़ा कर 180 दिन किए जाने संबंधी प्रावधान भी बेहद सख्त माने जा रहे हैं।
इस बिल के पक्ष में गुजरात सरकार की दलील है कि राज्य में आतंक तथा संगठित अपराध के बढ़े हुए खतरे के मद्देनजर यह जरूरी है। लेकिन ऐसे खतरे बताते हुए जो कड़े कानून पहले लाए गए हैं, उनके दुरुपयोग की शिकायतों का अनुपात देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि ऐसे कड़े कानून बनाते समय अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है। नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में गुजरात पुलिस का पिछला रेकॉर्ड भी इसी जरूरत को रेखांकित करता दिखता है।दरअसल, नक्सलवाद हो या आतंकवाद या अन्य संगठित अपराध, पुलिस तथा प्रशासन से जुड़े लोगों का एक तबका शुरू से अधिक से अधिक कड़े कानूनों में ही इन समस्याओं का हल देखता रहा है। हालांकि अनुभव बताते हैं कि कड़े कानून इन भीषण समस्याओं को हल करने के लिहाज से नाकाफी साबित हुए हैं। अलबत्ता, इनका बड़े पैमाने पर होने वाला दुरुपयोग कई नई समस्याएं पैदा कर देता है।
ऐसे में जरूरी है कि ऐसे संवेदनशील मसले को किसी भी रूप में राजनीतिक जिद या प्रतिष्ठा से न जुड़ने दिया जाए। अपराध और आतंक पर अंकुश जरूरी है, लेकिन यह काम देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को खतरे में डालते हुए नहीं, उनकी पूरी हिफाजत सुनिश्चित करते हुए किया जाना चाहिए।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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