राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश में सामाजिक अंकेक्षण के कुछ प्रयोग हुए हैं। मगर वे स्वयंसेवी संगठनों के छिटपुट हस्तक्षेप की तरह रहे हैं। जबकि इन अनुभवों से लाभ उठाते हुए इसको व्यापक और अधिक कारगर शक्ल देने की जरूरत है। यों चारों तरफ से सरकारी योजनाओं की वित्तीय खामियां जब-तब सामने आती रहती हैं। मगर वह तस्वीर सरकारी खातों और कागजात की जांच पर कुछ और ही होती है।
हिसाब-किताब और स्थानीय लोगों के अनुभव की खाई उससे सामने नहीं आ पाती। मोटे अनुमान के मुताबिक वर्ष 2013-14 में केंद्र और राज्यों की सामाजिक कल्याण योजनाओं पर कुल सत्रह लाख करोड़ रुपए खर्च हुए। जिलों के हिसाब से देखें तो यह राशि हर जिले के लिए औसतन 2656 करोड़ रुपए बैठती है। यह केवल एक साल का हिसाब है।
जबकि योजनाएं बरसों से और कुछ तो दशकों से चल रही हैं। इनका अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं दिखता? योजनाओं की समीक्षा अमूमन केंद्र और राज्यों की राजधानियों में बैठे नौकरशाहों के स्तर पर होती है, जिन्हें जमीनी हकीकत पता नहीं होती। क्रियान्वयन की वास्तविक स्थिति जाननी हो, तो जमीनी आकलन करना होगा, जो कि सीधे लाभार्थियों से बातचीत किए बगैर नहीं हो सकता। सामाजिक अंकेक्षण न सिर्फ योजनाओं के अमल की जमीनी जांच का जरिया है बल्कि यह स्थानीय स्तर पर विकास-कार्यों में लोगों की सीधी भागीदारी भी सुनिश्चित करने का उपाय है।
नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक शशिकांत शर्मा का यह सुझाव स्वागत-योग्य है कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं का सामाजिक अंकेक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए। दरअसल, इसकी जरूरत एक बुनियादी तकाजा है। लोगों की आर्थिक-सामाजिक समस्याओं से सीधे ताल्लुक रखने वाली योजनाओं का सोशल ऑडिट विकास-कार्यों में स्थानीय लोगों की सहभागिता का रास्ता खोलता है। इससे हमारा लोकतांत्रिक संवर्धन होगा और विकास की प्रक्रिया भी अधिक अर्थपूर्ण होगी। यों पंचायतों और नगर निकायों को कई जिम्मेदारियां दी गई हैं, इसके लिए उन्हें धन भी आबंटित होता है। पर उनकी जिम्मेदारियों को जवाबदेही और पारदर्शिता की कसौटी पर परखने की जरूरत है। इससे योजनाएं अधिक प्रभावी होंगी और उनमें जमीनी स्तर पर जरूरी बदलाव के सुझाव भी आएंगे।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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