राकेश दुबे@प्रतिदिन। पिछले छह दशकों में चीन को औद्योगिक शक्ति बनाने के लिए बडे पैमाने पर हिंसा का सहारा लिया गया है। इससे पहले यूरोप और अमेरिका में इससे भी अधिक लंबे समय तक और इससे भी भीषण रूप में हिंसा का सहारा लिया गया था। क्योंकि यह पक्ष अर्थशास्त्रियों के दायरे में नहीं आता, इसलिए उसकी बात नहीं होती।
पर सच्चाई यह है कि पश्चिमी तरह का उद्योगीकरण बिना हिंसा के हो ही नहीं सकता। यह औद्योगीकरण बड़े पैमाने के उत्पादन पर निर्भर है। ऐसा उत्पादन जिस मशीनीकरण से संभव है उसके लिए पूंजी चाहिए। इसकी प्रक्रिया उस उत्पादन तंत्र से उलट है जिसके हम भारतीय अभ्यस्त हैं।
हमारे यहां लोग अपनी कुशलता और अन्य साधनों से जो पैदा करते हैं उसका विभाग बाद में होता है। लेकिन औद्योगिक उत्पादन के लिए पूंजी पहले चाहिए। वह दूसरों का भाग छीन कर ही पाई जा सकती है। इस प्रवाह को बनाए रखने के लिए कोई न कोई उपनिवेश चाहिए। अगर बाह्य उपनिवेश नहीं होगा, तो आंतरिक उपनिवेश यानी देश के भीतर ही उपनिवेश खोजा जाएगा। यूरोप ने बाहरी उपनिवेशों के बल पर औद्योगिकीकरण के अपने अभियान को आगे बढ़ाया तो चीन ने आंतरिक उपनिवेश के बल पर। अमेरिका पहले अफ्रीका से बलात लाए गए गुलामों के बल पर और अपनी बड़ी आबादी को श्रमिक बना कर पंूजीकरण कर रहा था। बाद में जब अपने लोगों को निम्न जीवन स्तर पर रखना मुश्किल होने लगा तो उसने अपने उद्योगों को चीन स्थानांतरित कर दिया।
चीन अभी अपनी अधिकांश जनसंख्या को निम्न जीवन स्तर पर रख कर औद्योगिक शक्ति बनने का प्रयत्न कर रहा है। वह विश्व की अमेरिका के बाद सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय में वह विश्व में बयासीवें स्थान पर है। धीरे-धीरे चीनी लोग अपना जीवन स्तर सुधारने की मांग करेंगे और उनकी निर्वाह लागत बढ़ेगी। अगर चीन को अमेरिका की तरह अपने उद्योग तंत्र को दूसरों के कंधों पर डालने में सफलता नहीं मिली तो उसे अपनी जनसंख्या को बलपूर्वक आंतरिक उपनिवेश बनाए रखना पड़ेगा।
वास्तव में भारत और चीन पश्चिम के जिस आर्थिक ढांचे की नकल कर रहे हैं वह मूलत: एक राजनीतिक ढांचा है। उसमें अपने उपयोग के लिए उत्पादन नहीं किया जाता, व्यापार के लिए उत्पादन किया जाता है। यह व्यापार तंत्र ही शक्ति तंत्र है और इस शक्ति तंत्र के द्वारा पश्चिमी देशों में बुर्जुआ सत्ता खड़ी हुई है तो साम्यवादी देशों में राज्यतंत्र ही ये सारी भूमिकाएं निभा रहा है।
