राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत और चीन कि विकास दर कि होड़ एक दृश्य अंतर्राष्ट्रीय पटल पर उपस्थित कर रही है |चीन पिछले साल से ही अपनी विकास दर कम करने का लक्ष्य लेकर चल रहा है। 2014 में उसने अपना जीडीपी साढ़े सात प्रतिशत बढ़ाने का लक्ष्य रखा था, जो आखिरकार 7.4 प्रतिशत निकला। इस साल उसने इसको महज सात फीसदी बढ़ाने का टारगेट लिया है। इसके विपरीत भारत की विकास दर ऊंचे लक्ष्य के बावजूद दो-तीन साल लगातार नीचे आती रही। इस साल अजीब सी बाजीगरी के जरिए इसे यूं ही एक-डेढ़ फीसदी ऊपर ला दिया गया है।
सवाल यह है कि लंबी अवधि को ध्यान में रखते हुए दोनों में से कौन सी रणनीति ज्यादा सही है? किसी फैसले तक पहुंचने से पहले हम चीन के रणनीतिकारों द्वारा अपना नजरिया बदलने के लिए दिए गए तर्कों पर एक नजर डालते हैं। उनका कहना है कि बेतहाशा कर्जों के बल पर हासिल तेज विकास दर ने उनके समाज के लिए संकट खड़ा कर दिया था। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा था, बेरोजगारी बढ़ रही थी और पर्यावरण संकट बेकाबू होता जा रहा था। जीडीपी ग्रोथ रेट कम रखकर वे अपनी अर्थव्यवस्था की कार्यकुशलता बढ़ाना चाहते हैं|
चीनियों का मानना है कि कुछ समय तक इस प्रक्रिया को जारी रखकर वे न सिर्फ अपने बाजार का आकार बढ़ा सकेंगे, बल्कि अपनी आबादी में जगह-जगह पैदा हो रहे असंतोष का भी कारगर इलाज खोज लेंगे। यह बिल्कुल संभव है कि वे झूठ बोल रहे हों और तेज जीडीपी वाली रणनीति के जरिए भारत दुनिया भर से निवेश अपनी तरफ खींचकर अगले तीस-चालीस वर्षों में उन्हें पीछे छोड़ दे। लेकिन बेरोजगारी, आर्थिक विषमता और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी समस्याएं भारत में भी कुछ कम नहीं है, और विकास की रणनीति के संदर्भ में इन पर कोई बात ही नहीं होती। आज नहीं तो कल हमें भी सोचना होगा कि जो जीडीपी ग्रोथ देश में सिर्फ अरबपतियों की संख्या बढ़ाने के काम आ रही हो, उसे इसी दिशा में और बढ़ाकर हमें क्या मिलने वाला है।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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