राकेश दुबे@प्रतिदिन। सरकारों का चरित्र एक जैसा होता है और वे तबाही से भी कोई सबक नहीं लेती हैं | जल विद्युत् परियोजनाओं की मंजूरी कुछ ऐसा ही मसला है | केंद्र सरकार उच्चतम न्यायलय में कुछ स्वीकार करती है और बाहर कुछ और | एक ओर उत्तराखंड में हुई तबाही के मामले में केंद्र सरकार ने शपथ पत्र में स्वीकार किया है कि उत्तराखंड में पिछले साल आई बाढ़ को और तीव्र बनाने में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जलविद्युत परियोजनाओं की अहम भूमिका रही। इससे पहले केंद्र इस सच को स्वीकार करने से बचता रहा। इस आपदा में सैकड़ों लोग मारे गए थे और बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी।
अब सरकार टीएसआर सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट के उस सुझाव को मामने जा रही है जिसमे पर्यावरणीय मंजूरी के सरकार के फैसलों को न्यायिक समीक्षा के परे जाने की बात कही गई है । अगर इसे स्वीकार कर लिया गया तो इसका नतीजा बहुत खतरनाक होगा, इसलिए भी कि परियोजनाओं के पर्यावरणीय असर का आकलन करने और उन्हें स्वीकृति देने की प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए न केंद्र में कोई नियामक तंत्र है न राज्यों में।
उत्तराखंड की तबाही के समय पर्यावरणविदों ने यह कहा था कि अगर पारिस्थितिकी को नजरअंदाज कर इस हिमालयी क्षेत्र में ढेर सारे बांध न बनाए गए होते और नदियों के ऐन किनारे तक निर्माण-कार्यों की इजाजत न दी गई होती, तो आपदा इतनी भयावह न होती। इस जल-प्रलय ने सारे देश को स्तब्ध करने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय को भी चिंता में डाल दिया। न्यायालय ने उत्तराखंड में जलविद्युत की प्रस्तावित उनतालीस में से चौबीस परियोजनाओं पर रोक लगा दी।
पहला मौका है जब केंद्र ने सर्वोच्च अदालत में शपथपत्र देकर जलविद्युत परियोजनाओं से पर्यावरणीय संकट उत्पन्न होने की हकीकत स्वीकार की है। सवाल यह है कि क्या इस स्वीकारोक्ति से उसके रवैए में कोई फर्क आएगा? उत्तराखंड की जिन परियोजनाओं को आपदा-कारक माना गया, उन्हें पर्यावरणीय मंजूरी यूपीए सरकार के दौरान मिली थी। इसलिए कांग्रेस अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकती। पर इस कटु अनुभव से कुछ सीखने के बजाय भाजपा उसी दिशा में ज्यादा रफ्तार से चलना चाहती है।