राकेश दुबे@प्रतिदिन। बहुत बड़ा वायदा किया था, तीन साल में सारे स्कूलों में मूलभूत सुविधाएँ मुहैया कराने का| न तो शिक्षा का अधिकार कानून बनाने वाली केंद्र सरकार ने ही कुछ किया और न इस अधिकार को अमलीजामा पहनाने के लिए उत्तरदायित्व ग्रहण करने वाली राज्य सरकारों ने इसके नीचे की बातें तो बेमानी हैं|
सरकारी स्कूलों का यह सत्र भी उन्ही सारे अभावों के साथ समाप्त हो रहा है जिनके बारे में घोषणा पत्रों में ढेर सारे वायदे हैं | इसके विपरीत निजी क्षेत्रों के स्कूल सारे सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए फलफूल रहे हैं|
शिक्षा अधिकार कानून लागू करते समय दावा किया गया था कि तीन साल के भीतर स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं मुहैया करा दी जाएंगी। बुनियादी ढांचे के लिए जहां २०१३ की समय-सीमा तय की गई, विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात को अपेक्षित स्तर पर लाने के लिए २०१५ की। मगर हकीकत यह है कि आज भी स्कूलों की दशा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है। बहुत सारे स्कूलों में न पर्याप्त कमरे हैं, न पीने के पानी, शौच, ब्लैकबोर्ड, पाठ्यसामग्री आदि की व्यवस्था। यही नहीं, तमाम राज्यों में अध्यापकों के हजारों पद खाली हैं।
शिक्षा के महत्व के बारे में बड़े-बड़े भाषण देने वालों के पास क्या इस बात का कोई जवाब है की देश में डेढ़ लाख स्कूल कम क्यों हैं? मौजूदा स्कूलों में अध्यापकों बारह लाख पद किस ख़ुशी में रिक्त हैं? गुरूजी, संविदा शिक्षक, शिक्षा कर्मी और न जाने कौन-कौन से बहाने बनाना सरकार कब बंद करेगी| ऐसा किसी ने अपने घोषणा पत्र में नहीं लिखा है| ताज़ा आंकड़े कहते हैं लगभग पौने चार करोड़ बच्चे देश में स्कूल नहीं गये हैं| कुछ कीजिये, वायदे को छोडकर|
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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