काली कमाई पर कार्रवाई से बचने के लिए भाजपा में गए हैं संजय पाठक

मानक अग्रवाल/भोपाल। कांग्रेस की छत्रछाया में अपनी राजनीतिक और आर्थिक हैसियत बनाने वाले संजय पाठक का यूं भाजपा में शामिल हो जाना भाजपा के लिए बड़ी घटना हो सकती है, किंतु कांग्रेस के लिए नहीं।

पिछले करीब दो महीनों से संजय पाठक अपनी आर्थिक रसूखदारी के दम पर कांग्रेस और भाजपा, दोनों के साथ लज्जास्पद सौदेबाजी में लगे हुए थे। वे अपनी शर्तो पर कांग्रेस को नचाने का झूठा अहम अपने मन में पाल बैठे थे। दो दिन पहले उन्होंने कहा था कि उनकी रग-रग में कांग्रेस बसी है। उनका डीएनए कांग्रेस से जुड़ा हुआ है, लेकिन बड़े शर्म की बात है कि दो रात में ही संजय पाठक का डीएनए बदल गया और आज उन्होंने भाजपा को अपने रग-रग में बसा लिया।

आपने कहा है कि जिस व्यक्ति का डीएनए इतनी जल्दी-जल्दी बदलता है, कम से कम कांग्रेस को तो अब उसकी कोई जरूरत नहीं रह गई थी। ऐसे अवसरवादी और एहसान फरामोश लोगों की भारतीय जनता पार्टी को सख्त जरूरत हो सकती है, लेकिन कांग्रेस को नहीं, क्योंकि ऐसे निपट स्वार्थी और सिद्धांतहीन नेता सिद्धांतों की राजनीति करने वाली कांग्रेस पार्टी के लिए बोझ होते हैं। संजय के भाजपा के पाले में चले जाने से कांगे्रस को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। वे कांग्रेस के भीतर रहकर पिछले दिनों पार्टी को काफी नुकसान पहुंचा चुके हैं।

श्री अग्रवाल ने कहा है कि संजय पाठक चूंकि कांग्रेस की छत्रछाया में पले-बढ़े हैं, इसलिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सहानुभूति के साथ उनकी प्रिय-अप्रिय सभी बातें सुनीं और पार्टी की रीति-नीति के तहत संगठन के अधिकतम हित में जो भी किया जा सकता है वह करने का आश्वासन देने के बाद भी जब उनके द्वारा सत्तारूढ़ भाजपा के दरवाजे खटखटाना जारी रखा गया तो पार्टी नेतृत्व ने अंततः उनको अपने मन की कर लेने की छूट दे दी।

यह तो संभव नहीं था कि पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व एक विधायक के सामने अपनी सर्वोपरि स्थिति के साथ कोई समझौता कर ले। जो नेता अपनी मातृसंस्था के शीर्ष नेताओं के साथ बातचीत जारी रखते हुए भाजपा में प्रवेश की शर्तो पर भी सौदेबाजी जारी रखें, उसकी विश्वसनीयता स्वयंमेव समाप्त हो जाती है। जब पार्टी के भीतर किसी नेता की विश्वसनीयता संदेहास्पद हो जाती है तो उसको पार्टी में आगे बनाये रखना स्वतः बेमानी हो जाता है।

संजय पाठक एक सार्वजनिक नेता के रूप में जनसेवा की अपनी सारी पूंजी खो चुके थे। पिछले विधान सभा चुनाव में वे अपनी सीट बमुश्किल 900 वोटों से ही बचा सके थे। इस नाम मात्र की जीत से संजय बुरी तरह बौखला उठे थे और पार्टी के कार्यक्रमों में उनकी यह बौखलाहट जाहिर भी हो चुकी थी। दूसरा, चर्चा है कि कांग्रेस का विधायक रहते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पार्टनरशिप में खदानों का कारोबार शुरू कर दिया था। 

तीसरा, उन्हें यह भय सता रहा था कि पिछले वर्षाें में खदानों के कारोबार में उन्होंने जो अकूत कमाई की है, उसकी सुरक्षा अब कांग्रेस में बने रहने से सुनिश्चित नहीं होगी, इसलिए वे अपनी मातृ संस्था के साथ विश्वासघात कर उस भाजपा के गले लग गए, जो खनिज माफियाओं की एक मात्र संरक्षक पार्टी है। संजय पाठक भली प्रकार जानते थे कि खनिज का स्याह-सफेद धंधा भाजपा सरकार की कृपा से ही बेरोकटोक फल-फूल सकता है।

जो लोग कांग्रेस के भीतर रहकर खतरनाक घुण का काम करते हैं, उनका बाहर हो जाना पार्टी के व्यापक हित में है। दरअसल संजय पाठक तो अब उस जगह पहुंच गए हैं, जहां उन्हें पहुंचना चाहिए था। कांग्रेस लाखों निष्ठावान, त्यागी, तपस्वी कार्यकर्ताओं की पार्टी है। उसका जनसेवा और राष्ट्र सेवा का कारवां तो बिना रूके, बिना थके यूं ही चलता रहेगा।

लेखक मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष हैं। 

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