राकेश दुबे@प्रतिदिन। पहले भारत में चुनाव लड़ने के पूर्व पहले राजनीतिक दल अपना-अपना वैचारिक आधार परिभाषित करते थे| किसी का विचार समाजवाद के नजदीक होता था, किसी की पैरोकारी राष्ट्रवाद के लिए होती थी, तो किसी के तेवर साम्यवादी धार लिए तीखे होते थे|
अब सारे दल विचार के स्तर पर शून्य दिखाई दे रहे हैं| लोहियावादी, परिवाद के पैरोकार हो गये हैं| राष्ट्रवाद, व्यक्तिवाद में बदल रहा है और साम्यवाद तो सुविधावाद की ओट में अपनी पहचान बनाने में सफल है| 2014 के चुनाव में जो थीम दिखाई दे रही है, वह है –अवसरवाद|
सबसे पहले मध्यप्रदेश, भारतीय प्रशासनिक सेवा के भूतपूर्व अधिकारी डॉ. भागीरथ प्रसाद| कांग्रेस की विचारधारा से इतने प्रभावित और असरदार कि कांग्रेस द्वारा भिंड संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित किये गये| उसी रात, यकायक कांग्रेस छोड़ भाजपा में आये और भाजपा का उसी संसदीय क्षेत्र से टिकट सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया| यह कौन सा वाद है – अवसरवाद?
यह चुनाव राजनीतिक अवसरवाद के एक बड़े उदहारण के रूप में इतिहास में दर्ज हो गया है| जैसे अन्य कई नेताओं ने इस बार काम के दिख रहे दलों में शरण ली है और लेने जा रहे हैं। लालू यादव के पुराने सहयोगी और राजद के महासचिव रामकृपाल यादव का भाजपा में शामिल होना तो तय था, कर्नाटक में कांग्रेस की पूर्व सांसद तेजस्विनी रमेश भी भाजपा में शामिल हो गईं।
बिहार में कथित मोदी-बयार भांपकर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा में शामिल हो गए हैं। उन्हें खगड़िया से उम्मीदवार घोषित किया गया है। ओड़िशा में बीजद फायदे में रहा, जहां मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के प्रयास से ईसाई नेताओं का एक समूह सत्तारूढ़ दल में शामिल हो गया।
देश की राजनीति किसी सिद्धांत, वैचारिक आधार और जनवाद को छोड़ चुकी है | अब सब दूर अवसरवाद है और उसका अंत राजनीतिक मूल्यों की निरंतर गिरावट में दिखता है | दलों के शीर्ष पर शोभायमान नेताओं को टिकट के लिए मुंह ताकना पड़ रहा है | विचार का स्थान धनबल और कहीं तो बाहुबल ने ले लिया है | अवसरवाद के पैरोकारों को सोचना चाहिए की वे राजनीतिक पतन की सबसे निचले पायदान पर हैं |
