इक़बाल अहमद/बीबीसी संवाददाता, टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) से।
मध्य प्रदेश में मतदान के बाद अब सबको वोटों की गिनती का इंतज़ार है. सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा, ये तो आठ दिसंबर को पता चलेगा लेकिन कुछ सवाल बराबर अपनी जगह बने हुए हैं.
इन्हीं में से एक ये है कि एक बड़ी आबादी होने के बावजूद मध्य प्रदेश में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का उस तरह राजनीतिक सशक्तिकरण क्यों नहीं हुआ जैसा इसके पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश या उससे सटे बिहार में हुआ है.
राज्य में लगभग 20 फ़ीसदी आदिवासी हैं और क़रीब 15 फ़ीसदी दलित. पिछड़े वर्ग की भी मध्य प्रदेश की जनसंख्या में बड़ी हिस्सेदारी है.
इस बारे में टीकमगढ़ स्थित वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र अधवर्यु कहते हैं, "मध्य प्रदेश का ज़्यादातर हिस्सा सामंतों के चंगुल में रहा. इस कारण बाक़ी लोग दोहरी, तिहरी ग़ुलामी में रहे. अंग्रेज़ों के ग़ुलाम राजा लोग, जागीरदार और ज़मींदार लोग हुआ करते थे और उनकी ग़ुलाम आम जनता थी. ग़ुलामी की बू आज तक लोगों में है.’’
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर विवेक कुमार भी मानते हैं कि मध्य प्रदेश के गठन से पहले उसके ज़्यादातर हिस्सों के रजवाड़ों के अधीन होने के कारण विलय के बाद भी रजवाड़ों ने उन इलाक़ों में कभी संयुक्त राजनीतिक चेतना को उभरने नहीं दिया.
आंदोलन क्यों नहीं
पिछड़े वर्ग की उमा भारती हिंदुत्ववादी राजनीति से उभरी हैं.
ऐसे में ये सवाल भी उठता है कि यहां फिर इन सबके ख़िलाफ़ जन आंदोलन क्यों नहीं हो सके.
ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एपीएस चौहान कहते हैं, "यहां की जनसंख्या क्षेत्र के हिसाब से बहुत कम है. यूपी और बिहार की तुलना में यहां जनसंख्या का दबाव बहुत कम है. इस कारण संसाधनों को हासिल करने के लिए यहां उतना संघर्ष नहीं करना पड़ता है जितना यूपी और बिहार में करना पड़ता है.’’
प्रोफ़ेसर चौहान के मुताबिक़ मध्य प्रदेश में आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग, महिला या अल्पसंख्यक आंदोलनों की कमी रही है. उनके अनुसार जब तक ये आंदोलन सशक्त नहीं होंगे तब तक इनमें से नेतृत्व उभर कर सामने नहीं आएगा और तब तक मध्य प्रदेश में लोकतंत्र मज़बूत नहीं होगा.
वरिष्ठ वकील और राजनीति पर नज़र रखने वाले एडवोकेट मानवेंद्र सिंह चौहान इसके लिए भौगोलिक स्थिति को ज़िम्मेदार मानते हैं. उनके अनुसार, “प्रदेशव्यापी आदिवासी बेल्ट मध्यप्रदेश में नहीं है जिससे उनके नेतृत्व की आकांक्षाएं कमज़ोर होती हैं.’’
तो क्या मध्य प्रदेश में आदिवासी नेतृत्व कभी पैदा ही नहीं हुआ?
प्रदेश में जमुना देवी, शिवभानु सिंह सोलंकी और उनके पुत्र सूरजभान सिंह सोलंकी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया जैसे आदिवासी नेता हुए हैं.
शिवभानू सिंह सोलंकी और जमुना देवी प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री तक रहे, वहीं कांतिलाल भूरिया फ़िलहाल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं.
लेकिन इनकी राजनीतिक हैसियत पर सवाल उठाते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र अधवर्यु कहते हैं, "आदिवासियों में अभी तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जो अपना वजूद बना सका हो. आदिवासी समाज से अगर कोई नेता बनता है तो नेता बनने के बाद ये लोग उन वर्गों को भूल जाते हैं जिनके दम पर ये चुनाव जीत कर आते हैं और ऊपर की राजनीति करने लगते हैं.’’
कौन ज़िम्मेदार
प्रोफ़ेसर विवेक कुमार इसके लिए सिर्फ़ उन आदिवासी नेताओं को ज़िम्मेदार नहीं मानते.
उनके अनुसार, "कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में आत्मनिर्भर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया और अगर कुछ उभरे भी तो उन आदिवासी नेताओं को आत्मसात कर लिया."
प्रोफ़ेसर कुमार के अनुसार प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री (1993-2003) रहे और फ़िलहाल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने बहुजन समाज पार्टी से जुड़े कर्मचारी संगठन बामसेफ़ की काट के रूप में अजात (अनुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारी संघ) बनाने में बड़ी भूमिका निभाई.
उनके अनुसार दिग्विजय सिंह का साल 2002 का दलित एजेंडा भी दरअसल मध्यप्रदेश के दलितों को आत्मसात करने की एक राजनीतिक पहल थी.
मध्य प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले विश्लेषकों के अनुसार भारतीय जनता पार्टी से कड़ी चुनौती मिलने के कारण 1980 के दशक में कांग्रेस ने आदिवासियों और दलितों को पार्टी से जोड़ने के लिए कई क़दम उठाए.
1980 और ख़ासकर 1990 के दशक में देश के दूसरे इलाक़ों, विशेषकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में पनप रहे दलित और पिछड़े वर्ग के आंदोलन के प्रभाव को कम करने के लिए मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकारों ने आदिवासियों और दलितों के लिए विशेष पैकेजों की घोषणा की और मुख्यमंत्री के रूप में दिग्विजय सिंह के ज़रिए उठाए गए कई क़दम भी इसी दिशा में थे.
विश्लेषकों के अनुसार कांग्रेस की ये सारी पहल आदिवासियों और दलितों की आर्थिक स्थिति की बेहतरी के लिए थी और इससे उनको कुछ लाभ भी मिला लेकिन राजनीतिक स्तर पर उन्हें सशक्त करने के लिए अब भी कोई क़दम नहीं उठाए गए हैं.
इससे अलग यूपी और बिहार में दलित और पिछड़े वर्ग के आंदोलन अंबेडकर, लोहिया और जेपी से प्रभावित रहे हैं जो दर असल अपनी अलग पहचान और राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए चलाए जाने वाले आंदोलन रहे हैं.
तालमेल की कमी
प्रोफ़ेसर कुमार के अनुसार मध्य प्रदेश में आदिवासियों और दलितों में कोई तालमेल न होना भी एक प्रमुख कारण है जिससे यहां कोई संयुक्त आंदोलन नहीं उभर पाया.
आदिवासियों के अलावा मध्य प्रदेश में दलित आंदोलन भी उभर कर सामने नहीं आ सका जबकि इसके पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन ने जड़ें पकड़ी हैं और साल 2007 में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया था.
बसपा के संस्थापक कांशीराम ने दलित आंदोलन के लिए मायावती को उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी थी और फूल सिंह बरैया को मध्य प्रदेश और बाबूराम रत्नाकर को छत्तीसगढ़ की ज़िम्मेदारी दी थी.
मध्य प्रदेश की दलित राजनीति पर नज़र रखने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक ने अपना नाम सार्वजनिक न किए जाने की शर्त पर कहा, "एक बार कांशीराम का जन्मदिन मध्य प्रदेश में मनाया जा रहा था. मायावती को उसमें दावत नहीं दी गई थी. मायावती वहां आना चाहती थीं, लेकिन कांशीराम ने उन्हें नहीं आने दिया.’’
दरअसल कांशीराम हर प्रदेश में एक आत्मनिर्भर नेता बनाना चाहते थे जो दलित आंदोलन को आगे बढ़ाता लेकिन उनके बाद मायावती ने इसे नकार दिया.
कांशीराम के जाने के बाद जैसे ही मायावती पार्टी की सर्वमान्य नेता हो गईं, उन्होंने फूल सिंह बरैया को बाहर का रास्ता दिखा दिया. दर असल फूल सिंह बरैया और बाबूराम रत्नाकर जैसे नेता मायावती को पार्टी का सर्वोच्च नेता मानने के लिए तैयार नहीं थे और ऐसे में उनका पार्टी में बना रहना मायावती के लिए ख़तरनाक हो सकता था.
फूल सिंह बरैया ने बहुजन संघर्ष दल नाम से पार्टी ज़रूर बनाई है लेकिन फ़िलहाल उनका कोई अस्तित्व नहीं है.
सवर्णों का राज
"कांग्रेस ने आत्मनिर्भर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया और आदिवासी नेताओं को आत्मसात कर लिया."
प्रोफेसर विवेक कुमार, जेएनयू
मध्य प्रदेश में ये बात सिर्फ़ आदिवासी और दलित राजनीति तक ही सीमित नहीं है. यहां पर पिछड़ी जातियों का भी एक बड़ा हिस्सा है लेकिन पिछड़े वर्गों का कोई भी सशक्त आंदोलन नहीं हुआ.
कांग्रेस के सुभाष यादव, भाजपा के शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती पिछड़े वर्ग से आते हैं लेकिन उनके राजनीतिक उत्थान को पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण नहीं कहा जा सकता.
एक राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार, "शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती दरअसल हिंदुत्ववादी आंदोलन के नेता हैं, ठीक उसी तरह जैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग से आने के बाद भी वे हिंदुत्ववादी आंदोलन के नेता हैं, पिछड़े वर्गों के आंदोलन के नेता नहीं.’’
यही कारण है कि उमा भारती और कल्याण सिंह पार्टी से निकाले जाने के बाद हाशिए पर चले गए जबकि लोहिया और जेपी से प्रभावित और सामाजिक न्याय के नाम पर उभरे मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे नेताओं का राजनीतिक अस्तित्व अब भी बरक़रार है.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों की एक बड़ी संख्या होने के बावजूद प्रदेश की राजनीति पर अब भी सवर्णों का राज है.
भाजपा और कांग्रेस, दोनों पार्टियों में इन वर्गों की मौजूदगी ज़रूर है लेकिन उसे सिर्फ़ सांकेतिक कहा जा सकता है, किसी आंदोलन के बाद हासिल किया गया अधिकार नहीं.