किसी राजनेता में जितने भी गुण हो सकते हैं वो सब विद्याचरण शुक्ल में थे। वे एक राजनेता के बेटे थे। उनके पिता रविशंकर शुक्ल मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे। इस नाते उनकी राजनीति विरासत की राजनीति रही लेकिन 1957 में मात्र 28 वर्ष की उम्र में सांसद बन जाने के बाद से 2013 में 84 वर्ष की उम्र में भी खुद को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक रख पाना सब के बूते की बात नहीं हो सकती। विरासत की तो हरगिज नहीं।
प्रासंगिक बने रहने के लिए जो जोड़-भाग, गुणा-गणित उन्होंने जीवनभर किया वह भी उनकी अपनी क़ाबिलियत थी। वे कांग्रेस से जनमोर्चा में गए, फिर जनता दल में, फिर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी में और फिर भाजपा के रास्ते फिर कांग्रेस में लौटे। मंत्री बने रहना मानों उनके जीवन का लक्ष्य था। इस लक्ष्य की तलाश में वे दर-दर भटके। आधा अधूरा ही सही लक्ष्य हासिल भी किया।
वे 'खुला खेल फ़र्रुखाबादी' क़िस्म की राजनीति करते थे। माथे पर बिना शिकन लाए करते थे। फिर चाहे वह प्रतिद्वंद्वियों को पटखनी देने की हो या फिर दलबदल करने की।
संजय गांधी की दोस्ती से लेकर इंदिरा गांधी के सिपहसलार होने तक वह उस दौर की राजनीति के केंद्र में थे। पत्रकार बिरादरी आपातकाल को एक काला दौर मानती है। उस दौर को काला बनाने का श्रेय विद्याचरण शुक्ल को भी दिया जाता है। आपातकाल के किस्सों में ढेर सारा क़िस्सा विद्याचरण शुक्ल के नाम मिलता है। दिल्ली की एक प्रेस के ट्रांसफार्मर में ट्रक भिड़ाने से लेकर एक फिल्म को रिलीज़ होने से रोकने के लिए जलाने तक का।
राजनेता में प्रधानमंत्री बनने की सहज इच्छा होती है। उनमें भी थी। सेना के एक आला अफसर ने अपनी किताब में इसका विस्तार से विवरण दिया है कि इस आकांक्षा में वे किस तरह जैलसिंह से मिलकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी का तख्ता पलटना चाहते थे। राजीव गांधी ने इसका बुरा माना था। वे हाशिए पर पटक दिए गए। लेकिन वे फिनिक्स की तरह बार बार उभरते रहे।
वे छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री भी बनना चाहते थे। लेकिन नहीं बन सके तो उनके घर पर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की पिटाई तक हो गई थी।
वे अलग थे। अपने पिता रविशंकर शुक्ल से भी और उनके साथ प्रदेश की राजनीति कर रहे भाई श्यामाचरण शुक्ल से भी।
वे जीवन को भरपूर जीने के हामी थे। मेनका गांधी की पत्रिका सूर्या की लाइब्रेरियों में पड़ी प्रतियों से लेकर विनोद मेहता की किताब लखनऊ ब्वॉय के पन्ने इसका सबूत हैं।
उन्होंने ताउम्र छत्तीसगढ़ से केंद्र की राजनीति की। एक समय वे, उनके भाई, इस क्षेत्र की एकछत्र राजनीति करने वालों में से थे। श्यामाचरण ने तो फिर भी सिंचाई के लिए बहुत काम किए। लेकिन विद्याचरण का योगदान पता नहीं क्यों कोई याद नहीं कर पाता। सिवाय 1975 में एक टीवी स्टेशन देने के।
लेकिन छत्तीसगढ़ ने उनको हमेशा सम्मान से देखा। उनका आदर किया। वे उनके लिए विद्या भैया थे। अपने विद्या भैया।
पता नहीं वे किसलिए याद किए जाएंगे। ये अफसोस रहेगा कि नक्सली मामले से उनका ताउम्र कोई लेना देना नहीं रहा उन्हीं नक्सलियों का हमला उनकी मौत का सबब बन गया।