भोपाल। पूरे देश की राजनीति का हिलाकर रख देने वाले नक्सली हमले में संदेह की सुई अजीत जोगी की ओर भी रुक रही है। सोशल मीडिया पर इस संदर्भ में कई सवाल शेयर किए जा रहे हैं, जिनमें से सबसे प्रमुख यह है कि 'आखिर अंतिम समय में क्यों बदल गया था अजीत जोगी का प्लान'।
तय प्रोग्राम के अनुसार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं छग के पूर्व सीएम अजीत जोगी भी इस काफ़िले के साथ जगदलपुर जाने वाले थे, लेकिन तबियत खराब होने की वजह से वो नहीं गए और उनकी जान बच गई।
अब सवाल यह उठ रहा है कि तबीयत सचमुच खराब हुई या खराब बताकर मौके से फरार होने की रणनीति बनाई गई थी। सवाल यह उठ रहा है कि क्या अजीत जोगी को इस हमले की भनक थी। इसके आगे सवाल यह भी है कि क्या अजीत जोगी इस हमले की प्लानिंग में शामिल थे।
मृत कांग्रेसियों के समर्थक आक्रोश में हैं और आक्रोश में वो कुछ भी आरोप लगा सकते हैं, सही क्या है और गलत क्या यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, परंतु सवाल कांग्रेस के कई नेताओं की सामूहिक हत्या का है। भारत की राजनीति का एतिहासिक हत्याकांड हर उस व्यक्ति को शक के दायरे में लाता है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इस विषय से जुड़ा हो। जांच अपनी दिशा में चलती रहेगी और निर्णय भी शीघ्र ही सबके सामने आ जाएगा परंतु सोशल मीडिया पर जो दलीलें दी जा रहीं हैं उन पर ध्यान तो दिया ही जाना चाहिए।
बस इसीलिए हम भोपालसमाचार.कॉम की एफबी वॉल पर शेयर होकर आ रहीं प्रतिक्रियाओं को यह सूचीबद्ध कर प्रकाशित कर रहे हैं। यदि आपकी एफबी वॉल पर भी इस हत्याकांड में अजीत जोगी की भूमिका से जुड़े अपडेट शेयर हो रहे हैं तो कृपया उसे कमेंट बॉक्स में शेयर करें ताकि आपके बाद आने वाले पाठकों को अधिक जानकारी मिल सके।
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कांग्रेस नेता अजीत जोगी के आँसुओं
की जांच की जरुरत ..............!!!
देश की इंटेलीजेंस एजेंसियों को कांग्रेस
नेता अजीत जोगो के उस रुमाल को तुरंत
कब्जे में ले कर रासायनिक परीक्षण के
लिये भेज देना चाहिए ताकि उनके
आंसुओ की हकीकत पता चल सके .... आंसू
दो तरह के होते है एक बे जो शरीर और
मन में उत्पन्न हुए मानसिक आधात और
असली दुःख से उत्पन्न होते है .... और
दूसरे बो जो कपटी चालाक और धूर्त
तथा साजिस करने बाले
जबरदस्ती अपनी आँखों से बाहर धकेल
देते है ..... लेकिन दोनों ही प्रकार के
आँसुओं का अपना एक अलग रासयनिक
प्रोफायल होता है जिसको गहन जांच से
पकड़ा जा सक्ता है .............!!!
जब अजीत जोगी मुख्यमंत्री थे तब हर
हमले के बाद नक्सली जोगी जिंदाबाद
के नारे लगाते थे..
और "ये सरकार हमारी है" लिखे पर्चे
छोड़ जाते थे....
पत्रिका ने उठाया बड़ा सवाल:किसकी सलाह पर बदला रूट
रायपुर। छत्तीसगढ में दो दिन पूर्व कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का मार्ग अन्तिम क्षणों में बदलने की खबरे सामने रही है। सूत्रों के अनुसार सुकमा की सभा के बाद परिवर्तन यात्रा को दूसरे रास्ते जगदलपुर रवाना होना था लेकिन अन्तिम क्षणों में किसी स्थानीय नेता या कार्यकर्ता की सलाह पर रास्ते को बदल कर दरभा घाटी की तरफ से यात्रा रवाना हुई। इस रास्ते को पहले खतरनाक मानते हुए ही दूसरे मार्ग को तय किया गया था।
रास्ता बदलने की सलाह किसने दी यह सामने नहीं आया है। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भी सोमवार को स्वीकार किया कि उन्हें भी कुछ कार्यकर्ताओं और मीडिया से इस तरह की खबर मिली है कि अन्तिम क्षणों में रास्ता बदला गया। उन्होंने कहा कि वह सभा में मौजूद थे और हेलीकाप्टर से वापस आए। इस दौरान उनके सामने और उनकी जानकारी में फिलहाल रास्ता बदलने की कोई बात नहीं हुई।
सूत्रों के अनुसार रास्ता बदलने की सलाह देने वाले ने दरभा घाटी वाले रास्ते को नजदीक बताया। दूसरी ओर हमले में घायल कोन्टा के विधायक कवासी लकमा ने रास्ता बदलने को गलत बताया। उन्होंने कहा कि पहले से ही दरभा घाटी का रास्ता तय था जबकि स्थानीय पत्रकारों का भी कहना है कि रास्ता बदला गया। रास्ता बदलने की सलाह किसी साजिश के तहत दी गई या नहीं यह सवाल तेजी से उठ रहा है।
पुलिस सूत्रों ने रास्ता बदलने के बारे में पूछे जाने पर कोई टिप्पणी करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इस मामले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) शरू कर रही है और न्यायिक जांच की भी राज्य सरकार ने घोषणा की है।
वरिष्ठ पत्रकार और गढ़ छत्तीस के लेखक विनोद वर्मा के सवाल
छत्तीसगढ़ में शनिवार को हुए हमले के बाद कई सवाल हवा में तैर रहे हैं. ये सवाल राजनीति, सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था से जुड़े हुए हैं.
सवाल यह है कि जिस बस्तर में 12 में से 11 विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत हुई हो, जहाँ कांग्रेस का सांसद न हो वहाँ कांग्रेस के नेताओं से नक्सलियों की इतनी नाराज़गी क्यों?
कांग्रेस तो पिछले दस बरसों से विपक्ष में बैठी हुई है फिर उससे नक्सलियों का ऐसा बैर?
महेंद्र कर्मा ज़रुर नक्सलियों के कट्टर दुश्मन रहे हैं लेकिन ये हमला सिर्फ़ कर्मा पर हुआ हमला नहीं है.
आश्चर्यजनक तथ्य है कि मुख्यमंत्री अपने पिछले कार्यकाल में नक्सलियों के सबसे बड़े दुश्मन दिख रहे थे. उसी मुख्यमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल में नक्सली समस्या को एकाएक हाशिए पर डाल दिया. रमन सिंह की विकास यात्राओं में न तो नक्सली समस्याओं का ज़िक्र है और न ही उनसे लड़ने के वादे.