रौबदार, दिलेर, राष्ट्रभक्त और अद्भुत संगठन क्षमता वाले क्रांतिकारी महावीर कोठा सीहोर कन्टिजेंट में एक प्रभावी हवलदार थे। १८४८ से भोपाल की एक फौज को सीहोर में अंग्रेजी फौजों द्वारा फौजी प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इस फौज को भोपाल कन्टिनजेंट कहते थे। ये फौज सिकन्दर बेगम भोपाल के पति नजर मोहम्मद खाँ (१७९१-१८१९) और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच हुए एक समझौते के अन्तर्गत गठित की गई थी। इसका पूरा खर्च रियासत भोपाल उठाती थी।
भोपाल कन्टिनजेंट को सीहोर सैनिक छावनी भी कहते थे। उस समय सीहोर में सैनिक छावनी वर्तमान सैकड़ाखेड़ी मार्ग पर सीवन नदी के किनारे स्थित थी। यहीं सैनिकों के रहने के घर भी बने हुए थे और सैनिक प्रशिक्षण के लिये यहाँ चाँदमारी (जहाँ सिपाही बंदूक से गोली चलाकर निशाना साधने का प्रशिक्षण लेते हैं) भी होती थी जिसका ऊंचा व विशाल टीला बना हुआ था। इसके अलावा फौज का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान शकर मिल कारखाने के स्थान पर रहता था जहाँ उस समय कारखाना नहीं था।
वहाँ सैनिकों के रहने के आवास बड़ी संख्या में बने हुए थे। १० मई को मेरठ की क्रांति और दिल्ली पर भारतीयों का कब्जा होने के बाद पूरे देश में क्रांति की ज्वाला भडक़ रही थी। ८ जून १८५७ को नीमच की कन्टिनजेंट ने बगावत की। ये बगावत शीघ्र ही महिदपुर, नसीराबाद, महू, मंदसौर और इन्दौर में फैल गई। १४ जून १८५७ को ग्वालियर कन्टिनजेंट ने बगावत की। उस समय महाराज ग्वालियर (जीवाजीराव) ने अंग्रेजों को शरण दी और अपनी फौज की एक सशस्त्र टुकड़ी के संरक्षण में अंग्रेजों को धौलपुर के रास्ते आगरा पहुँचा दिया।
इन्दौर होल्कर की बागी फौज ने १ जुलाई १८५७ की सुबह इन्दौर की छावनी में रेजीडेंसी की इमारतों पर हमला किया था। यहाँ उस समय माहिदपुर और भोपाल कन्टिनजेंट की ३-४ कम्पनियाँ अंग्रेजों की सुरक्षा के लिये तैनात थीं। सीहोर के इन्ही सैनिकों में महावीर कोठा भी शामिल थे। महावीर कोठा अंग्रेजों के खुले विरोधी थे। जैसे ही इन्दौर में अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिकों ने युद्ध छेड़ा महावीर कोठ भी इसमें सम्मिलित हो गये।
असल में सीहोर से जो सैनिक इन्दौर गये थे उन्हे अंग्रेजों की सुरक्षा के लिये भेजा था लेकिन महावीर कोठ ने अंग्रेजों पर हमला शुरु कर दिया और अंग्रेजों की सुरक्षा में लगे सीहोर के सिपाहियों को उन्होने यह बात समझाई और खुलकर कहा कि हमें अंग्रेजों की सुरक्षा नहीं करनी है। इसलिये मैं तो सीहोर वापस जा रहा हूँ और जो भी सिपाही मेरे साथ चलना चाहे चले।
उन्होने सैनिकों से कहा कि सीहोर जाकर हम वहाँ से भी अंग्रेजों को मारकर भगा सकते हैं और इस प्रकार इन्दौर से लेकर सीहोर तक अंग्रेजों को कहीं रहने की जगह नहीं मिल सकेगी। महावीर कोठा के आव्हान पर कई सिपाही उनके साथ हो गये और वहाँ इन्दौर में उन्होने अंग्रेजों की सुरक्षा करने की बजाये उन्हे मारना शुरु कर दिया। इधर महावीर कोठ के साथ करीब १४ सिपाही इन्दौर छोडक़र सीहोर की और रवाना हो गये और ७ जुलाई १८५७ को सीहोर आ गये।
ऐसा माना जाता है कि १ जुलाई को इन्दौर में शुरु हुई बगावत के तत्काल बाद ही महावीर कोठ अपने साथियों के साथ रवाना हो गये थे और वह आसपास के क्षेत्रों में क्रांति का प्रचार-प्रसार करते हुए सीहोर पहुँचे थे। बिना किसी सरकारी अनुमति के महावीर कोठ के नेतृत्व में सीहोर आये इन क्रांतिकारियों ने सीहोर आते ही सीहोर की फौज में बगावत पैदा कर दी। सीहोर में उस समय अंग्रेज सर्वाधिक सुरक्षित थे। यहाँ बड़ी विशाल फौज उनकी सुरक्षा में तैनात थी। लेकिन महावीर ने इसी फौज को अंग्रेजों के खिलाफ कर दिया। ७ जुलाई सीहोर आये महावीर ने आते ही सीहोर के सैनिकों को अंग्रेजों के विरुद्ध समझाया।
महावीर का प्रभाव फौज पर कितना सशक्त था यह इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि फौज में बहुत तेजी से अंग्रेजों के खिलाफ रोष पैदा होने लगा। ८ और ९ जुलाई तक तो सीहोर के सैनिकों में अंग्रेजों को मार देने की योजना की तैयार हो गई थी, उनका विरोध मुखर हो रहा था। लगभग पूरे सैनिक अंग्रेजों के खिलाफ हो चुके थे। मात्र २ दिन में जिस तेजी से महावीर ने सीहोर के सैनिकों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा कर दिया था उससे लगता है कि सैनिकों में उनका प्रभाव बहुत अधिक था और यह बात अंग्रेज भी जानते थे। उन्हे भी मालूम था कि महावीर कोठ और १३ अन्य सिपाही आदेश की अवहेलना करके सीहोर वापस आया है।
महावीर ने सीहोर के सिपाहियों को एकत्र कर खुले रुप से कहा कि पूरे देश में अंग्रेजों को भारत से निकाला जा रहा है, दिल्ली में बहादुर शाह जफर का शासन कायम हो चुका है, चारों तरफ से अंग्रेज भाग रहे हैं, इन्दौर में किस प्रकार अंग्रेजों को मारकर भगाया गया है उसका वृतांत सुनाते हुए महावीर ने सीहोर के सैनिकों को कहा कि यदि आप साथ हो जायें तो सीहोर से भी अंग्रेजों को भगाया जा सकता है। उन्होने कहा कि सिपाहियों अब समय आ गया है जब हमें भी अंग्रेजों को खदेडक़र भारतदेश से बाहर निकाल देना चाहिये। महावीर के इस आव्हान पर सीहोर की फौज क्रांति के लिये तैयार हो गई थी। इस प्रकार सीहोर में भी अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की शुरुआत हुई। इसलिये ही सीहोर क्रांति के जनक के रुप में महावीर कोठ को याद किया जाता है और हमेशा याद किया जाता रहेगा।
आर्मी कमेटी महावीर के खिलाफ निर्णय नहीं ले सकी
सीहोर के फौजी क्रांतिकारी महावीर कोठ के साथ सम्मिलित होते जा रहे थे। सिकन्दर बेगम ने इसकी रोकथाम और १४ सिपाहियों पर कार्यवाही करने के लिये निर्देश दिये जिस पर उनके वफादार वख्शी मुरव्वत मोहम्मद खाँ ने सीहोर में एक आर्मी कमेटी स्थापित की थी। फौज के सभी सिपाहियों को निर्देश दिये गये थे कि वह प्रतिदिन इस कमेटी के समक्ष उपस्थित रहें। यह भी कहा गया कि जिन फौजियों ने सैनिक अनुशासन का उल्लंघन किया उनके प्रकरणों की जांच भी इसी कमेटी द्वारा की जायेगी। इस कमेटी ने सिपाहियों द्वारा आदेशों का पालन न करने, लापरवाही और देर से उपस्थिति आदि के कई प्रकरण पंजीबद्ध किये और सिपाहियों के विरुद्ध निलंबन, निष्कासन और जबरी त्यागपत्र के आदेश जारी किये। इस कमेटी ने फौज के उन १४ सिपाहियों को नौकरी से निकालने का निर्णय दे दिया जो इन्दौर से बिना अनुमति ड्यूटी छोडक़र सीहोर आ गये थे, लेकिन इसमें हवलदार महावीर कोठ और रमजूलाल सूबेदार का नाम भी सम्मिलित था, और यह दोनो ही फौज में बहुत अधिक लोकप्रिय थे। इसलिये इनको फौज से निकालने का निर्णय नहीं लिया जा सकता था क्योंकि ऐसी स्थिति में फौज में बगावत फैलने की संभावना थी। इसलिये वख्शी मुरव्वत मोहम्मद खां ने इन दोनो के अतिरिक्त शेष १२ को सेवा से पृथक करने का आदेश दे दिया। साथ ही जिन्हे नौकरी से निकाला गया उन्हे सीहोर की सीमा से बाहर जाने का भी आदेश दिया गया । यह भी क हा गया कि जो भी व्यक्ति इन लोगों को शरण देगा उसे भी सजा दी जायेगी। इस प्रकार महावीर की लोकप्रियता का डंका भोपाल बेगम के महलों तक गूंज रहा था। महावीर द्वारा लगातार देशभक्ति की भावना भडक़ाने तथा बगावत पैदा करने की जानकारी भोपाल बेगम को मिल रही थी।
(*)बख्शी मुरव्वत मोहम्मद खाँ कमांडर इन चीफ भोपाल आर्मी का पत्र बनाम सिकन्दर बेगम, गदर के कागजात की सूची-जिल्द ३
सीहोर फौज की ताकत
जिस समय १० जुलाई १८५७ को सीहोर सैनिक छावनी के तेवरों से घबराकर अंग्रेज सीहोर छोडक़र भाग गये थे। उस समय सीहोर की फौज में ७३७ पैदल, ३६३ सवार तथा विशाल तोपखाने में ११३ आदमी थे। जबकि १८५७ में रियासत भोपाल की सैना की संख्या कुल ४२६५ थी जिसमें ५८० सवार भी थे। तोपखाना में हल्की और भारी कुल ८० तोपें थी। जिनके नाम विचित्र थे जैसे लीहू-दीहू, कडक़ बिजली, जलपुकार, अंगड़ी-बंगड़ी, लैला-मजनूं, धूल-धानी, फतह, दौलत आदि।
(*)हयाते सिकन्दरी पेज-३६
बेगम के आदेश को महावीर ने मानने से किया इंकार
देशभक्ति की भावना जगाने वाले सिपाही महावीर कोठ के क्रांतिकारी विचारों की चिंगारी सीहोर फौज के करीब एक हजार से अधिक सैनिकों में राष्ट्रभक्ति की भावना को बढ़ा रही थी। राष्ट्रभक्त महावीर कोठ धीरे-धीरे सीहोर फौज के अघोषित सैनानायक के रुप में उभर रहे थे। महावीर की लोकप्रियता और उनके इशारे पर सैना के जवान चलने को तैयार हो चुके थे। सैनिकों की इस विशाल फौज में महावीर कोठ का दबदबा और उनकी संगठन शक्ति का लोहा सब मानने लगे थे। बैरसिया में सुजाअत खाँ के कब्जे को समाप्त करने के लिये सिकन्दर जहाँ बेगम ने सीहोर की फौज (भोपाल कन्टिनजेंट) को आदेश दिया कि वह तत्काल बैरसिया पर हमला करे। लेकिन इस आदेश को मानने के पहले सीहोर की सैना महावीर कोठ के इशारे का इंतजार कर रही थी, महावीर कोठ ने आदेश देने आये दूत को खुले रुप से कह दिया कि हम बेगम का यह आदेश नहीं मानेंगे, हमें नहीं जाना बैरसिया और सीहोर की फौज का कोई सिपाही भी बैरसिया नहीं जायेगा।(*) उस समय पाँच दिन पूर्व ही अंग्रेज सीहोर छोडक़र भागे थे, जिससे सीहोर के सैनिकों में उत्साह का संचार था सभी सैनिकों का मानना था कि महावीर कोठ के कारण ही सीहोर के सैनिकों में क्रांति आई और अंग्रेज भाग गये हैं। यही कारण था कि सैनिक महावीर कोठ के अनुसार चलने को तैयार थे। इस तरह महावीर कोठ ने बेगम का आदेश मानने से इंकार कर दिया जिससे बेगम अवाक रह गई। बेगम और भोपाल सरकार वखूवी समझ रहे थे कि महावीर का इंकार पूरी फौज का इंकार है और एक तरह से यह खुली बगावत भी है महावीर सीहोर की फौज में कोई बड़े अधिकारी नहीं थे वह एक हवलदार थे लेकिन उनकी लोकप्रियता के चलते सारी फौज और उनसे बड़े पद के अधिकारी भी उनसे ही सलाह-मशविरा लेते थे और उनके एक आदेश को सभी स्वीकार करने को तैयार थे।
(*)गदर के कागजात की सूची जिल्द-२
सीहोर में दो तोप की चोरी
सीहोर के सैनिकों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भडक़ी आग के कारण जहां १० जुलाई १८५७ को सीहोर से सारे अंग्रेज भाग गये थे। वहीं इसी दिन सैनिकों में क्रांति के लिये तैयारी हो चुकी थी। जिस दिन अंग्रेज सीहोर छोडक़र भागे उसी दिन सीहोर की फौज के तोपखाने से दो बड़ी तोप गायब हो गई। तोपों का यूँ गायब हो जाना कोई आसान बात नहीं थी। जब तोपों की गिनती हुई तो २ तोप गायब मिली। यह सूचना बख़्शी मुरव्वत खाँ के पास भी पहुँची । वख़्शी ने तुरंत जांच शुरु कर दी। इनमें एक तोप जांच के बाद सीहोर के ही एक सिपाही से बरामद भी हो गई थी जिसे उसी समय गिरफ्तार कर लिया गया। (*) उसकी गिरफ्तारी के बाद जो छानबीन आगे हुई उससे पता चला कि सीहोर सैना में क्रांति की चिंगारी पिछले कुछ समय से लगातार जल रही थी।
असल में जिस दिन अंग्रेज सीहोर छोडक़र भागे थे, उस दिन सीहोर के क्रांतिकारी सिपाहियों ने खूब उत्साह मनाया था। चारों तरफ खुशी का माहौल था। सभी सिपाही एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे। इधर सीहोर कस्बा में भी खुशी का माहौल था, जनता अंग्रेजों के भाग जाने की खुशी में मिठाईयाँ बांट रही थी। ऐसे में कुछ सिपाहियों ने मौके का लाभ उठाकर फौज से दो तोपे गायब कर दी थीं।
(*) मुंशी भवानी प्रसाद का पत्र, १४ जुलाई १८५७ बनाम सिकन्दर बेगम, गदर के कागजात की सूची जिल्द-१
चर्बी वाले कारतूस देखकर भडक़े क्रांतिकारी: सर्जन के बंगले में लगा दी आग
१ अगस्त १८५७ को वख्शी मुरव्वत मोहम्मद खां ने छावनी के सैनिकों की उपस्थिति ली। इसके बाद रिसालों के कुछ आदमियों को लेकर मेगजीन में वह गये वहाँ जो नये संदूक रखे थे उनको खोलकर कारतूस देखे। कारतूस सैनिकों में बांट दिये गये। इन्ही में एक बंडल ऐसा भी निकला जो भदरंग था। सैनिकों को शक हो गया कि इन सब कारतूसों में ही गाय और सुअर की चर्बी लगी है। देखते ही देखते सिपाहियों की नजरे बदल गईं। सिपाहियों को इन कारतूसों के विषय में बताया गया कि कारतूसों को गन लगाने से पूर्व मुँह में लगाकर चिकना या गीला करके तंतू दांतों से काटकर प्रयोग करना पड़ेगा। यह सुनकर सैनिकों का खून खोल उठा । यहाँ सारे ही सैनिकों ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए सीधे-सीधे शब्दों में कहा कि इन कारतूसों की हमारे सामने जांच करना पड़ेगी। वरना हम कुछ भी कर सकते हैं। अंतत: सैनिकों का आक्रोश देखकर वापस इन कारतूसों को पेटी में बंद कर दिया गया।
लेकिन इसके बावजूद क्रांतिकारी सैनिक शांत नहीं हुए। अंग्रेजों की धर्म विरोधी नीति से अंग्रेजों के प्रति सैनिकों में गुस्से की आग भडक़ रही थी। कुछ सैनिकों ने तो गुस्से में अंग्रेज अफसरों के खाली पड़े मकानों में आग लगा दी। २ अगस्त १८५७ को सैनिक छावनी के सर्जन के बंगले में आग लगा दी, और उसका सामान लूट लिया गया। सर्जन बड़ी मुश्किल से अपने बीबी-बच्चों को लेकर भाग निकला और बड़ी कठिनाई से उसकी जान बच सकी।
इस घटना से बेगम को यह समझ आ गया कि यदि उन्होने चर्बी वाले कारतूसों की जांच नहीं कराई तो लेने के देने पड़ सकते हैं। उन्हे बगावत फैलने तक का भी अंदेशा था। इसलिये उन्होने तत्काल इनकी जांच कराई। स्वयं वख्शी की उपस्थिति में जांच शुरु हुई । जब जांच हो रही थी तो सारे सैनिक आकर आक्रोशित भाव से यहाँ खड़े थे और वह जांच में जरा-भी गड़बड़ी नहीं होने देना चाहते थे। इसलिये जांच के दौरान ६ पेटियों की जांच हुई जिनमें से २ पेटी संदेहास्पद पाई गईं (*)। इन्हे सैनिकों के सामने ही अलग कर दिया और यह आदेश दिया गया कि यह संदेह वाली कारतूसों को तोडक़र तोपों के लिये इनका गोला बारुद बना लिया जाये।
जांच करने वालों को लगा कि इस प्रकार कारतूस तोडऩे के आदेश देने से सिपाहियों का आक्रोश ठंडा हो जायेगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा, क्योंकि सीहोर के क्रांतिकारियों में यह शक यकीन में बदल गया कि नये कारतूसों में अवश्य ही गाय और सुअर की चर्बी उपयोग की जा रही है। इसलिये ही यह कारतूस तोडऩे के आदेश दिये गये हैं। अंग्रेजों के साथ-साथ बेगम पर भी सैनिकों में गुस्से का उबाल आ रहा था। इस घटना के बाद राष्ट्र की रक्षा के लिये सैनिक का कार्य करने वाले सिपाहियों को यह लगने लगा कि यहाँ तो हमारा ही धर्म सुरक्षित नहीं है। अंग्रेजों ने तो हमारा धर्म नष्ट करने का प्रयास किया ही है बल्कि बेगम भी उनका साथ दे रही है। ऐसी स्थिति में सैनिक भयंकर आक्रोश के साथ असमंजस की स्थिति में थे। उन्हे बस एक ईशारे की देर थी कि अब वो क्या करें?
(*) गदर के कागजात की प्रकाशित सूची-जिल्द ४
और हो गई क्रांति की शुरुआत
इसी दौरान सैनिकों की लम्बे समय से चली आ रही मिलावट की मांग जिस न्यायिक और अपराध विभाग के प्रमुख श्री गणेशराम की देख-रेख में किये जाने के आदेश दिये गये थे। वह जांच ६ अगस्त १८५७ गुरुवार को सुबह सीहोर के रामलीला मैदान में हुई। (यह रामलीला मैदान सीहोर के कस्बा क्षेत्र में स्थित है जहाँ उस समय भी रामलीला हुआ करती थी, यह मैदान प्राचीन श्वेताम्बर जैन मंदिर के पीछे की तरफ स्थित है, जो कस्बे के सर्वाधिक ऊँचे स्थान पर है) गणेशराम की जांच ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। शकर में गाय और सुअर की हड्डियों की मिलावट पाई गई। जैसे ही यह निष्कर्ष सामने आया, यहाँ जांच देखने आये सैनिकों के रोंगटे खड़े हो गये, आक्रोश के मारे आंखों में खून उतरने लगा।
हिन्दु और मुस्लिम दोनो ही धर्म के सैनिकों की सहनशक्ति की सीमा पार कर चुकी थी, उनके ही सामने शकर की जांच में सुअर और गाय की हड्डीयों का चूरा निकला था, जिससे उनका धर्म नष्ट हो चुका था और यह बात उनको अंग्रेजों और अंग्रेजों के सारे वफादारों के प्रति गुस्से से उबाल रही थी। उनमें अब सिकन्दर बेगम के प्रति भी भयानक आक्रोश व्याप्त हो गया था। आक्रोशित सैनिकों का शक यकीन में बदल चुका था कि अंग्रेज और बेगम जानबूझकर उनका धर्म भ्रष्ट कर रहे हैं। अत्याधिक गुस्से से भरे होने के कारण जांच देखने आये सैनिक रामलीला मैदान पर बिना कुछ उपद्रव किये वापस चल दिये। हालांकि वह चुप नहीं थे गुस्से में भरे होने के कारण वह सरकार की ईंट से ईंट बजा देना चाहते थे।
जांच कमेटी तो यह भी नहीं समझ पाई कि अचानक सैनिक गुस्से में कहा जा रहे हैं लेकिन सैनिक गुस्से में बोलते जा रहे थे कि बेगम और अंग्रेज दोनो ने हमारा धर्म भ्रष्ट करा है... पूरे देश से अंग्रेजों को भगा दिया गया है और बेगम है कि अंग्रेजों की वफादारी में लगी हुई है।
गुस्साये सैनिकों ने कर दिया सीहोर आजाद: बनाई सिपाही बहादुर सरकार
शक्कर की जांच के बाद गुस्साये सैनिक क्या करें और क्या ना करें यह समझ नहीं पा रहे थे। क्या वापस सैनिक छावनी जाकर वह नौकरी करें ? या फिर नौकरी से निकल जाये ? उनका धर्म भ्रष्ट करने वाले को वह कैसे सजा दें ? किस प्रकार अंग्रेजो की वफादार बेगम को सबक सिखायें ? यह बातें उनके मन में उमड़-घुमड़ रही थी। रामलीला मैदान से कस्बे तक आते हुए वह एक मैदान पर एकत्र हो गये। यहाँ उन्हे रोकने और एकत्र करने का काम आरिफ शाह और अन्य सिपाहियों ने किया, ताकि सब एक साथ बैठकर निर्णय ले सकें। (जिस मैदान पर सिपाहियों के एकत्र होने की बात इतिहास में कही गई है उस मैदान का संदर्भो में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है लेकिन कस्बा स्थित रामलीला मैदान से गुस्साकर आये सैनिक संभवत: बिना रुके पॉलिटिकल एजेंट के निवास तक निश्चित आये होंगे, हो सकता है सैनिक यहीं आसपास कहीं एकत्रित हुए हों)। मैदान पर एकत्रित सैनिकों को रिसालदार वली शाह ने संबोधित करते हुए उनमें क्रांति की भावनाएं जगा दी। उन्होने एक जोशीला भाषण दिया जिसमें उन्होने कहा कि
‘बहादुर सिपाहियों,
आज रामलीला मैदान में जो जांच उच्च अधिकारियों और हमारे साथियों के सामने हुई थी, उससे यह प्रमाणित हो गया है कि शक्कर में मिलावट की जा रही है, परन्तु फिर भी बेगम अंग्रेजों की वफादार बनी हुई हैं। बहादुर सिपाहियों, तुमको मालूम है कि हिन्दुस्तान के राष्ट्रवादी सिपाहियों ने देहली से अंग्रेजों को निकाल दिया है। वहाँ सिपाहियों और आम जनता ने हिन्दुस्तान के मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को दोबारा देहली के तख्त पर बैठा दिया है। बादशाह ने जंगे आजादी का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया है और यह आदेश दिया है कि अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से निकाल दिया जाये। उनके इस आदेश का पालन करना हर हिन्दुस्तानी का कर्तव्य है। परन्तु हमारी बेगम साहिबा आज भी अंग्रेजों की वफादारी के काम में लगी हुई हैं। हमारे कई साथियों को नौकरी से निकाल दिया गया है। कई सिपाही बिना कारण जेल में बंद कर दिये गये हैं और आगे भी सजाएं दी जाने वाली हैं। अब कहा जा रहा है कि महावीर को भी गिरफ्तार करने का आदेश हो चुका है, जिस पर जल्द ही पालन किया जाने वाला है, ये निर्णय इसलिये किया गया है कि सरकार हमारी आवाज को दबा देना चाहती है।
वली शाह ने अपने भाषण में महावीर कोठ की गिरफ्तारी किये जाने का उल्लेख करके सैनिकों को और अधिक भडक़ा दिया था। उनका स्पष्ट कहना था कि महावीर को गिरफ्तार करके बेगम हमारी आवाज दबा देना चाहती है। उन्होने अपने भाषण में यह भी कहा कि ‘‘फौज के अधिकारी अच्छी तरह कान खोलकर सुन लें कि अगर उन्होने हमारे मेहबूब लीडर महावीर को गिरफ्तार कर लिया तो हम फौज की ईमारत की ईंट से ईंट बजाकर रख देंगे और हम मुंशी भवानी प्रसाद वकील और फौज के सभी बड़े अधिकारियों को भेड़-बकरियों की तरह काटकर फेंक देंगे। सिपाहियों बहुत अच्छी तरह जान लो कि हमारे साथ ये दुव्र्यवहार इस कारण किया जा रहा है कि अंग्रेजों की गिरती हुई सरकार को सहारा दिया जा सके। मगर अब हम अपने ऊपर किये जाने वाले अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। बहादुरों अगर तुम वास्तव में सिपाही की औलाद हो तो उठो और अत्याचारियों को समाप्त कर दो, अन्यथा हमारे बीच से निकल जाओ। बताओ तुम अंग्रेज की गुलामी पसंद करते हो या अपने देश की आजादी। अगर तुम अंग्रेज की गुलामी पसंद करते हो तो बख्शी साहब के पास चले जाओ, तुम अपने देश की आजादी पसंद करते हो तो हमारे साथ आ जाओ।
असल में एक तरफ तो सैनिकों के सामने उनका धर्म भ्रष्ट करने के सबूत आ चुके थे और दूसरी और वलिशाह ने जब यह बताया कि महावीर कोठ को भी गिरफ्तार करने के आदेश हो चुके हैं तब तो सिपाहियों का गुस्सा परवान चढऩे को अमादा हो गया। वह महावीर कोठ से इस संबंध में बातचीत करने और आगे क्या किया जाये यह पूछना चाहते थे।
(*) चुन्नीलाल पी.ए.का पत्र बनाम सिकन्दर बेगम, गदर के कागजात की सूची, जिल्द-२
सिपाही बहादुर सरकार स्थापित, दो झण्डे लगे
क्रांति के अग्रदूत महावीर कोठा यह भलीभांति जानते थे कि भोपाल रियासत में यदि क्रांति हुई तो यहाँ सबसे बड़ी समस्या हिन्दु-मुस्लिम विवाद रहेगा। इसलिये पहले ही तय कर रखा था कि जब भी क्रांति होगी तो दो झण्डो के नीचे होगी। एक हरा रहेगा और दूसरा भगवा। जैसे ही यहाँ सभा में सिपाही बहादुर सरकार की घोषणा की गई तो यहाँ उपस्थित क्रांतिकारियों के सामने यह तय कर दिया गया कि सरकार को दर्शाने के लिये दो झण्डे लगाये जायेंगे। इनमें से एक झण्डा निशाने महावीरी कहलायेगा जिसका रंग भगवा रहेगा और दूसरा झण्डा निशाने मोहम्मदी कहलायेगा जिसका रंग हरा रहेगा। दोनो झण्डे हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रतीक रहेंगे और इनको एक-दूसरे से मिलाकर लगाया जायेगा। इस निर्णय के तत्काल बाद सीहोर कन्टिनजेंट में लगा अंग्रेजों का झण्डा उतार कर जला दिया गया और इसके स्थान पर निशाने महावीरी और निशाने मोहम्मदी लगा दिये गये। इसके साथ ही हर-हर महादेव और अल्लाहू अकबर के नारे भी बुलंदी के साथ लगाये गये। इस दिन सैनिकों में गजब का उत्साह रहा था, उनका जोश देखते ही बन रहा था।
सिपाही बहादुर की ताकत खत्म करने महावीर की गिरफ्तारी का आदेश
सीहोर में क्रांतिकारियों की ताकत हर दिन बढ़ती जा रही थी। बल्कि इनके कारण आसपास के क्षेत्रों में भी क्रांति की लहर पैदा हो रही थी। सिपाही बहादुर सरकार की असली ताकत महावीर कोठ थे जिनके कारण सारे सैनिक एकसाथ बंधे हुए थे और स्वतंत्रता की मशाल थामे हुए थे यह बात सिकन्दर बेगम भी अच्छी तरह समझ चुकी थीं और उन्हे यह भी मालूम था कि यदि महावीर किसी तरह रास्ते से हट जायें तो पूरी क्रांति को आसानी से दबाया जा सकता है। अंतत: उन्होने अक्टूबर में एक बार फिर सख्ती से यह आदेश जारी किया की महावीर कोठ को गिरफ्तार किया जाये। (*) इस आदेश के बाद फौज के सैनिकों में रोष और अधिक व्याप्त हो गया। कई क्रांतिकारी विचारों वाले सैनिक उस समय तक भी सीहोर की सैना में ही काम रहे थे लेकिन वह सिपाही बहादुर सरकार के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करते थे, बल्कि उसका साथ देते थे। लेकिन महावीर की गिरफ्तारी के आदेश ने उनमें रोष पैदा कर दिया। उन्होने धड़ा-धड़ त्यागपत्र देना शुरु कर दिये। इसे वख्शी साहब ने स्वीकार भी कर लिया और सैना के रिक्त पदों को भरने के लिये उन्होने अलग से सैनिकों की भर्ती शुरु कर दी। उस समय भोपाल के आसपास और सीहोर के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों के पुराने रहवासी ग्वालपुरिये थे। ग्वालपुरियों को सैना में भर्ती किया जाने लगा और अधिक वेतन भी दिये जाने की बात कही गई। ग्वालपुरी भोपाल रियासत के प्रति वफादारी और बहादुरी के लिये प्रसिद्ध थे। ग्वालपुरियों की भर्ती ने भोपाल बेगम को एक नई उर्जा दे दी। इधर महावीर कोठ जानते थे कि उनकी गिरफ्तारी हो गई तो पूरा क्रांति का आंदोलन ही समाप्त हो जायेगा। इसलिये वह सीहोर से गायब हो गये। वह गढ़ी आंबापानी के फाजिल मोहम्मद खाँ के पास पहुँच गये और वहाँ से सिपाही बहादुर सरकार की आगामी योजनाओं को चलाने लगे।
(*)गदर के कागजात की सूची, जिल्द-४
ह्यूरोज का संक्षिप्त परिचय-
जनरल ह्यूरोज ने सन १९२० मे अपना सैनिक जीवन शुरु किया था। १८५७ में उसके ३७ वर्ष सैनिक जीवन के पूर्ण हुए। आयरलेण्ड, सीरिया, क्रीमिया तथा सिवास्तापोल के युद्ध में अपनी योग्यता वह प्रकट कर चुका था। उच्च सैनिक सम्मान से भी वह विभूषित किया गया था। १७ दिसम्बर १८५७ को उसने सेंट्रल इण्डिया फील्ड फोर्स व मध्य भारत थल सैना की दो ब्रिगेड सैना का नेतृत्व ग्रहण किया।
प्रथम ब्रिगेड- जिसका नाम रखा गया मालवा थल सैना जो मऊ छावनी में रही।
दूसरी ब्रिगेड- सीहोर में रही।
कुछ विद्वानों एवं भोपाल की बेगमों के रचित ग्रंथों से पता चलता है कि ह्यूरोज ने दूसरी ब्रिगेड सीहोर में ८ जनवरी को ही भेज दी थी। जनवरी को ही महू से दोनो ब्रिगेड रवाना की गई थी।
बेगम ने ह्यूरोज और स्टूअर्ट का भव्य स्वागत किया। सैनिकों की समुचित खाने पीने की व्यवस्था की गई। बेगम ने यथोचित फौज की थकान दूर करने की व्यवस्था की। (*)
(*)महाश्वेता- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अध्याय ४ पृष्ठ-१३०
ह्यूरोज से सिपाही बहादुर सरकार समाप्त करने को कहा
एक बड़ी सैना के साथ सेंट्रल इण्डिया फील्ड फोर्स का नेतृत्व करते हुए जनरल ह्यूरोज मऊ होते हुए सीहोर पहुँच चुका था। मुम्बई से होते हुए ह्यूरोज रास्ते भर क्रांतिकारियों को दबाते हुए आगे बढ़ा था। सीहोर पहुँचते ही उसके पैरो तले जमीन खिसक गई। यहाँ उसे पता चला कि सैनिकों ने विद्रोह करने के साथ ही साथ एक सरकार भी बना ली है और अपने झण्डे भी गाड़ दिये हैं। तो उसने इस संबंध में भोपाल बेगम से पूछताछ की। सिपाही बहादुर सरकार के सैनिकों के हौंसले उस समय भी पस्त नहीं हुए थे और वह नाना साहब के मार्गदर्शन में गोरिल्ला युद्ध के अभ्यस्त हो चुके थे। बेगम ने ह्यूरोज के आते ही उससे सीहोर की सिपाही बहादुर सरकार को समाप्त करने को कहा। धीरे-धीरे करके जिन क्रांतिकारियों को भोपाल की सैना ने पकडक़र जेल में बंद किया था। बेगम ने सबसे पहले उन्हे ही सजा देने के लिये कहा। इन कैदियों को सजा देने के लिये संभवत: एक फौजी न्यायालय जनवरी में ही स्थापित किया गया। यह भी कहा जाता है कि इन कैदियों में से कई पर क्रांतिकारी होने के आरोप सिद्ध पाये गये लेकिन अधिकांश क्रांतिकारियों पर कोई दोष सिद्ध नहीं हो पाया था। जेल में बंद ऐसे ३५६ से अधिक क्रांतिकारी थे। जिन पर क्रांतिकारी अर्थात बागी होने का आरोप सिद्ध था उन्हे फांसी दी जाना थी लेकिन बेगम यह करने से डर रही थी। उसे डर था कि इससे सीहोर और भोपाल में एक साथ बगावत हो सकती है। इसलिये उसने जैसे ही ह्यूरोज सीहोर आया उसे यह जानकारी दी और ३५६ क्रांतिकारियों को सजा-ए-मौत देने का निवेदन किया। वख्शी मुरव्वत मोहम्मद खाँ ने जनरल रोज़ को पिछली सारी घटनाएं विस्तार से बताई और अनुरोध किया कि इन क्रांतिकारियों को वह खत्म कर दें।
...और सिपाही बहादुर के ३५६ क्रांतिकारियों को एक साथ गोलियों से भून डाला
जनरल रोज़ क्रूर स्वभाव का व्यक्ति था, भारत के क्रांतिकारियों का तो वह खून का प्यासा था ही बल्कि भारतीयों की लाश पेड़ से लटकी देखने पर उसे सुकून मिलता था। जब उसे पता चला कि अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सीहोर के क्रांतिकारियों ने एक समानान्तर सरकार बना ली है तो उसका गुस्सा और भी बढ़ गया। उसने तत्काल सारे कैदियों को सजा-ए-मौत का आदेश दे दिया। १४ जनवरी १८५८ के दिन सीहोर के सैकड़ो राष्ट्रवादी कैदियों को जेल से निकाला गया और एक मैदान पर सीवन नदी के किनारे बेंगन घांट सैकड़ाखेड़ी पर लाकर खड़ा किया गया।
देश के लिये जान हथेली पर रखकर चलने वाले क्रांतिकारियों को मालूम था कि आज उनके साथ क्या होने वाला है, लेकिन उनके चेहरों पर जरा- भी सिकन नहीं थी, बल्कि वह दृंढनिश्चयी भाव से शांत थे। वो जानते थे कि उन्होने जो किया है वह अपनी मातृभूमि के लिये किया है। अपने देश की स्वतंत्रता के लिये वह मर मिटने को तैयार थे, लेकिन अंग्रेज भारतियों पर जुल्म ढाये यह वह सहन नहीं कर सकते थे। वो देश की रक्षा के लिये सैनिक बने थे और अंग्रेज भारत देश के दुश्मन थे। इसलिये यह क्रांतिकारी अंग्रेजों के आगे झुकने को तैयार नहीं थे बल्कि उनसे दो-दो हाथ करने के लिये बेकरार थे। सैकड़ाखेड़ी मार्ग पर बनी चाँदमारी के स्थान पर इन सैनिकों को एक साथ लाया गया। उन्हे यहाँ एक बार फिर मौत की सजा सुनाने के पहले एक साथ खड़ा किया गया। सारे सैनिक बुलंदी के साथ सीना चौड़ा करके खड़े थे। किसी ने भी वतन की आजादी के लिये अंग्रेजों से समझौता नहीं किया। किसी ने माफी तक नहीं मांगी। उनकी दिलेरी और राष्ट्रभक्ति देखकर जनरल रोज और बौखला गया। उसने अंतिम धमकी देते हुए कहा कि सबको गोलियों से भून डाला जायेगा। इसके बावजूद क्रांतिकारी खड़े रहे। उन्होने सजा-ए-मौत से बचने के लिये किसी प्रकार का कोई निवेदन नहीं किया। चारों तरफ से बहुत विशाल अंग्रेजी सैना शस्त्र हाथ में लिये निहत्थे क्रांतिकारियों को घेरकर खड़ी हुई थी। क्रांतिकारियों के हाथ जकड़े हुए थे, उन्हे जंजीरों से बांधा गया था। अंतत: रोज के आदेश पर हजारों गोलियाँ एक साथ क्रांतिकारियों के सीनों पर अंग्रेज सैनिकों ने बरसाना शुरु कर दी। क्रांतिकारियों ने इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय, हर-हर महादेव, अल्लाहू अकबर के जयघोष करते हुए अपने सीने पर बड़ी दिलेरी से गोलियाँ खाई और मौत को गले लगा लिया वह भारत माँ के लाड़ले इस मातृभूमि की गोद में हमेशा हमेशा के लिये सो गये।
सिपाही बहादुर के क्रांतिकारी बहादुरों का दोष क्या था ? जो उनका सामुहिक रुप से कत्लेआम किया गया। केवल यही कि वह अपने देश की आजादी के लिये क्रांति का शंखनाद कर रहे थे उन्होने खुलकर प्रजातंत्र का समर्थन किया था। इतनी बड़ी दर्दनाक घटना उस समय तक कहीं नहीं घटी थी। अंग्रेज जनरल ह्यूरोज भी तब बौखला गया था जब सैनिकों ने माफी मांगने के बजाय सीने पर गोली खाना स्वीकार कर लिया। देश की स्वतंत्रता के लिये प्राणों की आहूति देने का यह जज्बा अंग्रेज अफसर देखकर दंग थे।
इतनी बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों के शवों को छोडक़र ह्यूरोज फौज के साथ आगे रवाना हो गया। यहाँ इन शवों का अंतिम संस्कार सीहोर कस्बा के स्थानीय लोगों द्वारा तत्कालीन परम्परा के अनुसार किया गया। फौज के सिपाही हिन्दु-मुस्लिम दोनो थे। कई सिपाही नसरुल्लागंज-बुदनी बेल्ट के आसपास के भी थे। यहाँ चाँदमारी के पास पड़ी नदी किनारे की जमीनों पर बड़े-बड़े गड्डे खोदकर क्रांतिकारियों के शवों की यहाँ समाधियाँ बना दी गईं। ऐसी कई समाधियाँ यहाँ बन गई थीं। जो आज भी जीर्ण-शीर्ण स्थिति में नजर आती हैं। आज कोई नहीं जानता की वो समाधिया देश पर मर मिटने वाले क्रांतिकारियों की समाधियाँ हैं।
महावीर कोठ गिरफ्तार
महावीर कोठ को ढूंढते हुए जनरल रोज़ की सैना ३ फरवरी १८५८ को सागर पहुँची। इसी दिन ३ फरवरी १८५८ को सिपाही बहादुर सरकार के संस्थापक महावीर कोठ को रायसेन किलेदार खान जमां खान के कुछ सिपाहियों ने चारों तरफ से घेरकर गिरफ्तार कर लिया। जनरल रोज़ को जैसे ही यह खबर लगी वह महावीर कोठ से मिलने के लिये बैचेन हो गया। महावीर कोठ को उनके सामने लाया गया तो रोज़ उन्हे देखकर संभवत: अपना संतुलन खो बैठा। महावीर कोठ का तेजस्वी चेहरा और गर्वीली आवाज थी महावीर ने रोज़ के सामने अपने आक्रोश की हुंकार भरी तो रोज़ एक पल के लिये ठिठक गया। कई सैनिक महावीर को चारों तरफ से घेरे हुए थे और उन्हे जंजीरों में जकड़ा गया था। इसके बावजूद जनरल रोज़ महावीर से घबरा रहा था उसने पहले महावीर की शिनाख्त करने के आदेश दिये। जब सिपाहियों ने महावीर कोठ की पूरी शिनाख्त कर ली कि उसके पास कोई हथियार आदि नहीं है, तब जाकर जनरल रोज़ को कुछ चैन मिला। महावीर कोठ को देखने के लिये रोज़ काफी दिनों से परेशान था। महावीर की कुशल रणनीति से वह भी अचंभित था, और उसे लगता था कि महावीर देश के अन्य बड़े देशभक्तों के साथ मिला हुआ है इसलिये वह महावीर से वह बात करना चाहता था लेकिन महावीर कोठ जनरल रोज़ को देखकर इतनी तेज भडक़े थे कि जनरल रोज़ असमंजस में पड़ गया था। उसने पहले तो गुस्से में महावीर को तत्काल सजा-ए-मौत का आदेश ही दे दिया।
लेकिन कुछ ही देर बाद उसने फिर अपना आदेश बदल दिया। इससे लगता है कि रोज़ महावीर कोठ के सामने आ जाने के बाद अपना संतुलन खो बैठा था। महावीर को मौत की सजा सुनाने के बाद उसने फिर कहा कि अभी महावीर कोठ को जेल में रखा जाये। वह जानना चाहता था कि आखिर महावीर कोठ ने शुजाअत खाँ के बैरसिया हमले के समय साथ क्यों दिया था ? साथ ही महावीर कोठ का देश के और कौन-कौन से क्रांतिकारियों से सम्पर्क था। महावीर कोठ को जांच के लिये सागर के क्वार्टर गार्ड में बंदी बनाकर रखा गया। उनसे पूछताछ की जाती रही। इधर महावीर कोठ की लोकप्रियता सागर में फैलने लगी थी। महावीर कोठ को चाहने वाले सागर में भी है यह बात जब अंग्रेजों को पता चली तो वह महावीर से ही घबराने लगे। अंतत: एक दिन चुपचाप महावीर कोठ को बिना किसी जांच के १२ फरवरी १८५८ को सागर में फांसी पर लटका दिया गया और इस प्रकार महान स्वतंत्रता संग्राम सैनानी महावीर कोठ को सजा-ए-मौत दे दी गई। इस प्रकार देश की स्वतंत्रता के लिये सबसे व्यवस्थित रुप से खड़े किये गये आंदोलन ‘सिपाही बहादुर सरकार’ का अंत हो गया।
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aanandbhi gandhi
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