राजेन्द्र बंधु। भोपाल गैंगरेप में पुलिस का निम्नतम् और संवदनहीन चहेरा प्रमाणित हो चुका है। सीएम ने दोषी अधिकारियों को सस्पेंड कर दिया लेकिन सस्पेंड करना कोई सजा नहीं है क्योंकि इस मामले में एफआईआर नहीं लिखने को न तो जुर्म माना गया है और न ही उसके लिए कोई कानूनी कार्यवाही की प्रक्रिया शुरू की गई। होना यह चाहिए कि संबंधित पुलिस अधिकारियों पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 217 के अंतर्गत प्रकरण दर्ज किया जाता। इस धारा के अनुसार ‘‘जो कोई लोक सेवक होते हुए कानून के निर्देशों के विपरीत आचारण करें या जानबूझकर कानून की अवज्ञा करें या किसी व्यक्ति को वैध दण्ड से बचाने का प्रयास करें तो उसे दो वर्ष के कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जाएगा। यद्यपि पुलिस द्वारा किए गए जुर्म के एवज में यह दण्ड बहुत ही कम है, किन्तु मध्याप्रदेश सरकार द्वारा इस मामूली धारा में भी संबंधित पुलिसकर्मियों पर प्रकरण दर्ज नहीं किया गया।
यह देखा गया है कि महिलाओं पर हुए अपराध की एफआईआर दर्ज करवाना बहुत ही कठिन होता है और इसके लिए पीड़ित को पुलिस के संवेदनहीन वर्ताव, लंबा इंतजार और कई सवालों से गुजरना पड़ता है। इसलिए छेड़छाड़ और लज्जा भंग के अपराधों की तो एफआईआर ही दर्ज नहीं हो पाती। तीन साल पहले मध्यप्रदेश के उज्जैन में दुष्कर्म की शिकार युवती को एफआईआर दर्ज करवाने के लिए पुलिस थाने में 6 घंटे इंतजार करना पड़़ा। मई 2014 में उत्तरप्रदेश के एक गांव में 12 और 14 वर्ष की दो बालिकाओं से हुए सामुहिक दुष्कर्म और हत्या की घटना पर भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे थे।
इस घटना के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी संस्था ने कहा था कि ‘‘भारतीय अधिकारियों ने यौन हमलों का मुकाबना करने में अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई।’’ इसी वर्ष जनवरी माह में राजस्थान राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुमन शर्मा ने कहा था कि ‘‘महिलाओं से जुड़े मामले पुलिस थाने में संवेदनशीलता से नहीं सुने जाते।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा वर्ष 2016 में जारी रिपोर्ट के अनुसार देश में दुष्कर्म के कुल 34651 मामलों में सबसे ज्यादा 4391 मामले मध्यप्रदेश के हैं। यानी एफआईआर लिखने से बचने और आंकड़े कम करने की पूरी कोशिश के बावजूद जो संख्या सामने आ रही है, वह भी कम नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि महिलाओं पर हिंसा के मामले में पुलिस के संवेदनहीन रवैये से अपराधियों का हौसला बढ़ता है वह अपराधी की पुनरावृत्ति की ओर अग्रसर होता है। अतः पुलिस को यह बात समझनी चाहिए कि यदि वह आज आंकड़े कम करने की कोशिश कितनी ही कर लें, अपराध कम होने वाले नहीं है। अपराध तभी कम होंगे, जब एफआईआर दर्ज होगी और आरोपियों का सजा मिलेगी।
एफआईआर दर्ज होने के बाद भी कई मामलों में आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैं। ऐसा पुलिस अनुसंधान, साक्ष्यों के अनुपलब्धता एवं बयानों में विसंगती के कारण होता है। नेशलन क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरों द्वारा 2016 में जारी रिपोर्ट के अनुसार दुष्कर्म के सिर्फ 29.4 प्रतिशत मामलों में ही आरोपियों को सजा हो पाती है, यानी 70.6 प्रतिशत मामलों में आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैं। इस संदर्भ में जस्टिस आर.एस. सोढी ने कहा था कि ‘‘ जब भी पीड़िता ऐसे मामले में शिकायत करें तो उसका बयान उसी तरह लिखा जाना चाहिए जैसा उसने बताया है। अगर पुलिस उसके बयान में थोड़ा भी बदलाव करती है तो अदालत में पुलिस के सामने दिए गए बयान से वह बयान मेल नहीं खाता है और इसका लाभ आरोपी को मिला जाता है।
उपरोक्त तथ्यों से यह बात साफ है कि महिलाओं के विरूद्ध मामलों में यदि पुलिस संवेदनशील हो जाए तो अपराधों में 90 प्रतिशत कमी लाई जा सकती है। किन्तु पुलिस को संवेदनशील बनाने वाले प्रशिक्षण कम ही होते है। बल्कि इस संदर्भ में होने वाले दो-तीन दिनों के प्रशिक्षण अपर्याप्त होते है और उनकी गुणवत्ता भी ऐसी नहीं होती है कि वे उनमें संवदेनशीलता और व्यवहारगत् परिवर्तन ला पाए। इसलिए यह जरूरी है कि महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता पुलिस के मुख्य प्रशिक्षण का ही हिस्सा होना चाहिए, जो उन्हें पितृसत्तात्मक विचारधारा से मुक्त कर सकें।
राजेन्द्र बंधु
निदेशक-समान सोसायटी
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