मांस से कहीं ज्यादा लजीज और फायदेमंद है पिहरी

आनंद ताम्रकार/बालाघाट। मशरूम की एक प्रजाति पिहरी के बारे में लोग बहुत कम जानते हैं। यह एक शत प्रतिशत प्राकृतिक उपज है जो बांस के पेड़ों की जड़ों में इन दिनों अपने आप पैदा हो जाती है। सबसे मजेदार बात यह है कि यह वनस्पति मांस का सबसे अच्छा विकल्प है। यह ना केवल मांस से ज्यादा पौष्टिक और फायदेमंद है बल्कि उससे कहीं ज्यादा लजीज स्वाद भी देती है। जिन शाकाहारियों को डॉक्टर्स ने मांस खाने की सलाह दी है वो बिना अपना धर्म त्याग किए इसका सेवन कर सकते हैं और जो लोग मांसाहारी हैं उनके लिए यह सबसे बेहतरीन विकलप है। इससे जीवहिंसा भी नहीं होती और मांस से मिलने वाली पौष्टिकता व स्वाद भी मिलता है। देश के कई इलाकों में यह सदियों से लोगों का पसंदीदा खाद्य रहा है। बाजार में यह करीब 500 रुपए किलो तक मिलता है। एक और खास बात यह है कि इसकी पहचान आदिवासी समुदाय को ही बेहतर होती है अत: उन्हे रोजगार भी मिलता है। 

मध्यप्रदेश में बालाघाट सर्वाधिक वनों से अच्छादित वाला जिला है जिसके 52 प्रतिशत भू-भाग पर घनेजंगल लगे हुये है। घने जंगलों से बहुत प्रकार की वनोपज भी उपलब्ध होती है जिनसे जंगलों आसपास निवास करने वाले आदिवासियों के जीवनयापन और रोजगार का प्रमुख आधार बनी है। बालाघाट जिलों के जंगलों से ईमारती जलाउ लकडी उत्कृष्ट किस्म का बांस तथा वनोपज के रूप में महुआ, शहद, चारबीजी, चिरौटा के बीज, तेंदूपत्ता, मुसली, बेचांदी, तीखूर सहित अनेक औषधियां साल वृक्ष से निकलने वाली गोंद जिसे राल कहा जाता है बहुतायत उपलब्ध होती है जो वनों में रहने वाले आदिवासियों के रोजगार का साघन बनी है।

ऐसी ही एक वनोपज जिसे पीहरी कहा जाता है जो मसरूम की एक प्रजाति है इन दिनों बहुतायत में जंगलों से संग्रह कर आदिवासी बेचने के लिये शहर लेकर आते है मांसाहार प्रेमी इसे बहुत ज्यादा पंसद करते है स्थानीय बोलचाल की भाषा में इसे भमोडी कहा जाता है। बरसात के दिनों में बांस के झूरमुटो के बीच मशरूम की यह प्रजाति पिहरी अपने आप उग जाती है यह एक पौष्टीक आहार है जिसे सब्जी के रूप में सेवन किया जाता है पिहरी में बहुत सारे खनिज लवण प्रोटीन पाया जाता है।

बालाघाट से बैहर मार्ग पर सडक के किनारे पिहरी बेचने वाले की बहुतायत दिखाई देती है। पिहरी बेचने वालों से हुई चर्चा के अनुसार पिहरी सिर्फ बालाघाट के शहरी इलाकों में ही नही समीपवर्ती तुमसर, गोदिया एवं नागपुर तक बिकने जाती है। नागपुर में यह 500 रूपये प्रतिकिलोग्राम की दर पर बिकती है। जिले के बैहर तथा लांजी में यह बहुतायत में बिकने आ रही है इन दिनों आदिवासी के लिये यह रोजगार का प्रमुख साधन बना हुआ है। आदिवासी इससे संग्रह करने के लिये बडे सबेरे जंगल पहुच जाते है और बांस के झूरमुट से इसका संग्रह करते है। पिहरी बांस के पिडों के नीचे पत्तीयों तथा अन्य वनस्पतियों की सडन के कारण एक विशेष प्रकार के सुक्ष्म जीवों द्वारा बनाई जाती है। बरसात के दिनों में इसकी उपलब्धता लगभग 1 माह तक रहती है।शाकाहारी, मांसाहारी इसे लजीज सब्जी के रूप में पंसद करते है।

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