एक देश, एक बाजार, एक TAX सही है तो 'एक देश, एक जाति' क्यों नहीं

सूरज कुमार बौद्ध। 30 जून और 1 जुलाई के बीच मध्य रात्रि से गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानि कि वस्तु एवं सेवा कर कानून को पूरे देश में लागू कर दिया गया है। वस्तु एवं सेवा कर को लगाए जाने की कयास करीब 15 वर्षों से की जा रही है लेकिन सत्ता की सफारी पर सवार केंद्र एवं राज्य सरकारें इस संदर्भ में दृढ इच्छा से कोई मजबूत कदम नहीं उठा रहे थे। खैर अब वस्तु एवं सेवा कर कानून पूरे देश में लागू हो चुका है। 

भाजपा और संघ के लोग 'एक राष्ट्र, एक संस्कृति और एक विधान' की बात करते हैं। जीएसटी कानून को 'एक देश, एक बाजार, एक कर' के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। एकात्मकता की बात करना ठीक है लेकिन किसी भी समाज में निरपेक्ष एकात्मकता पूर्णतः असम्भव है। 'एक देश, एक बाजार, एक कर' की पहल तभी संभव है "जब एक जैसा देश, एक जैसा बाजार, एक जैसे लोग हों।" समानता समान लोगों में होती है। आसमान स्थितियों में रहने वाले लोगों को समान कानूनी दायरे में नहीं बांधा जा सकता है। 

जीएसटी कानून लागू करना गलत नहीं है लेकिन वर्गीकरण के सिद्धांत एवं बेहतर समीक्षात्मक तैयारी को नज़रंदाज़ करना गलत है। सरकार का कहना है कि 'टैक्स में टैक्स' नहीं इसलिए एक टैक्स होना चाहिए। मैं सरकार से पूछना चाहता हूं कि इस आधार पर वह यह बताए कि 'मानव जाति में 'जाति' क्यों होनी चाहिए? अगर 'एक देश, एक बाजार, एक टैक्स' सही है तो 'एक देश, एक जाति' कैसे गलत है? कुछ दिन पहले सोशल मीडिया में अच्छी बहस छिड़ी हुई थी कि 'इस देश को कैशलेस इंडिया (Cashless India) बनाने की ज्यादा जरूरत है या फिर कास्टलेस इंडिया (Casteless India) बनाने की?' मेरा भी यही सवाल है कि आखिर जातिविहीन भारत (Casteless India) बनाने की घोषणा कब होगी? मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार है।

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