
सुबह स्कूल शुरू होते ही वे बच्चों की वर्दी चेक करते हैं, तो दोपहर छुट्टी होने पर उन्हें बस की लाइन में लगाने और यहां तक कि बस के साथ जाने जैसे काम सौंपे जाते हैं। उन्हें परिसर की सफाई की निगरानी भी रखनी होती है, तो परिसर में लगे पेड़-पौधों के रखरखाव की भी। ये सारे वे काम हैं, जो अध्यापकों के नहीं हैं, मगर उन्हें करने ही पड़ते हैं।
यह सिर्फ निजी स्कूलों की समस्या नहीं है। हाल-फिलहाल तक सभी अध्यापकों को चुनाव के समय पढ़ाने-लिखाने का काम काम छोड़ चुनावी ड्यूटी निभानी पड़ती थी। वे इससे इनकार भी नहीं कर सकते थे। आम चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, या फिर विधान परिषद, नगर पालिका, ब्लॉक प्रमुख या ग्राम पंचायत के चुनाव, ऐसा कोई भी अनुष्ठान अध्यापकों से ‘बेगारी’ करवाए बिना पूरा नहीं होता था। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद केंद्र सरकार ने कहा है कि वह अब अध्यापकों को चुनाव ड्यूटी पर नहीं लगाएगी, पर चुनाव की ड्यूटी अकेला ऐसा काम नहीं, जो अध्यापकों को मजबूरन करना पड़ता है।
जनगणना का काम भी उनकी सेवा लिए बिना संपन्न नहीं हो पाता है। जनगणना हर दस साल बाद होती है और पहली से दसवीं कक्षा तक के हर बच्चे के जीवन में एक ऐसा साल जरूर आता है, जब उसके अध्यापक उसे सिर्फ इसीलिए कम पढ़ा पाते हैं कि वे जनगणना के काम में लगे थे। ग्रामीण स्तर पर पढ़ाने वाले अध्यापकों को तो कई तरह के सर्वे आदि में भी शामिल किया जाता है, इसके अलावा उन्हें पंचायत के भी बहुत सारे काम करने पड़ते हैं। अध्यापक अच्छा अध्यापन करें, हमारी व्यवस्था की उनसे अपेक्षाएं इससे कहीं अधिक की होती हैं।शिक्षकों को अच्छे दर्जे के पेशेवर न मानने का नतीजा है कि एक तरफ तो इससे शिक्षा का स्तर गिरा है और दूसरी तरफ यह धारणा बनी है कि उन्हें मजदूरों की तरह किसी भी काम में लगाया जा सकता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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