राकेश दुबे @ प्रतिदिन। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कांग्रेस अपने दिग्गजों के साथ दिल्ली में धरने पर आ गई थी। कल लोकसभा से कांग्रेस के 25 सांसदों के निलंबन के बाद संसद के मौजूदा सत्र को चलाने पर सरकार और विपक्ष में किसी प्रकार की सहमति बनने की संभावना और क्षीण हो गई है। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने यह सख्त कदम संसदीय गतिरोध खत्म करने के लिए बुलाई गई सभी पार्टियों की बैठक नाकाम रहने के बाद उठाया। इसके परिणामस्वरूप अगले शुक्रवार तक सदन में उपस्थित विपक्षी सदस्यों की संख्या अपेक्षाकृत कम रहेगी लेकिन इससे उनके तेवर और गर्म हो गये हैं। इससे राज्यसभा भी प्रभावित हो रही है, जहां विपक्ष का बहुमत है। पिछली सरकार में भाजपा ने भी यही सब किया था।
मानसून सत्र में कोई काम होता नहीं दिख रहा है। इसी के मद्देनजर नागरिक विमानन राज्यमंत्री महेश शर्मा ने यह बयान दिया कि सांसदों के लिए भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं" के सिद्धांत का उसी तरह पालन होना चाहिए, जैसा श्रमिकों के मामले में होता है। भारतीय जनता पार्टी के कई नेता इस राय से सहमत नजर आए हैं। यह सवाल वित्त मंत्री अरुण जेटली से भी पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि 'ऐसा सुझाव आया है, जिस पर विचार होना चाहिए।"
बेशक इस सुझाव में जनमत के एक बड़े हिस्से की भावना व्यक्त हुई है। यह साफ नहीं है कि इसे लागू करने का व्यावहारिक तरीका क्या होगा। मसलन, इस बारे में पूछने पर कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि उनकी पार्टी के सांसद कड़ी मेहनत कर रहे हैं। फिर यह दलील भी दी जा सकती है कि हंगामा कर सरकार को जवाबदेह बनाने के काम में विपक्ष जुटा हुआ है- यानी वर्तमान संदर्भ में रोज सदन में खड़े होकर इस्तीफा मांगते हुए विपक्षी सांसद अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। दूसरी पेचीदगी यह है कि जब सदन चलेगा नहीं तो क्या सत्ताधारी सदस्यों को हाजिर और विपक्षी सदस्यों को गैरहाजिर माना जाएगा?
अब इन मामलों में अधिक स्पष्टता लाने की आवश्यकता है । संसद/विधानसभाओं में रोज-रोज के हंगामों से लोग आजिज आ गए हैं। उनके मन में स्वाभाविक प्रश्न है कि इन हालात में राजकाज कैसे चलेगा? कितना ही भारी – भरकम बहुमत हो प्रजातंत्र में प्रतिपक्ष तो होना ही चाहिए।