TUESDAY: भगवान राम से मनोकामना पूर्ति के लिए हनुमान जी का मंत्र

श्री महादेवजी द्वारा पार्वतीजी को अध्यात्मरामायण में श्रीरामजी के राज्याभिषेक के उपरान्त वानरों की विदाई के बारे में कहा गया है कि, हे पार्वती! श्रीराम के राज्याभिषिक्त होने पर पृथ्वी धन-धान्य से भर गई। वृक्ष हरे-भरे होकर फलों से लद गए। जो पुष्प गंधहीन थे, वे अधिक सुंदर होकर सुगंधित हो गए। श्रीराम ने एक लाख घोड़े, एक लाख दूध देने वाली गायें और कृषि हेतु सैकड़ों बैल ब्राह्मणों को भेंट किए। अंत में उन्हें तीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ भी दीं। तदनंतर अत्यंत प्रसन्न होकर नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण और रत्नादि भी ब्राह्मणों को दिए। फिर श्रीराम ने अनेक प्रकार के रत्नों से युक्त, सूर्य की कांति के समान चमकती हुई एक माला अत्यंत प्रेमपूर्वक सुग्रीव को दी और अंगद को दो दिव्य भुजबंध दिए।  

हनुमते ददौ हारं पश्यतो राघवस्य च।  तेन हारेण शोभितो मारुतिर्गिरिवेण च।।  

तदनंतर श्रीरामजी ने अत्यंत प्रेमभाव से करोड़ों चंद्रमाओं के समान प्रकाशमान, अमूल्य मणि और रत्नों से विभूषित एक हार सीताजी को दिया। सीताजी ने उस हार को अपने गले से उतारकर बार-बार श्रीराम और वानरों की ओर देखने लगीं। श्रीरामजी ने सीताजी का संकेत समझकर उनकी ओर देखते हुए कहा, "हे सुमुखि! जनकनंदिनी! तुम जिसमें प्रसन्न हो, उसे यह हार दे दो।"  
हनुमते ददौ हारं पश्यतो राघवस्य च।  
तेन हारेण शोभितो मारुतिर्गिरिवेण च।।  
अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १६-९  
तब सीताजी ने श्रीरामचंद्रजी के सामने ही वह हार हनुमानजी को दे दिया। उस हार को पहनकर गौरवर्णित हनुमानजी अत्यंत शोभायमान हुए।  

श्रीराम ने उस समय उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हनुमानजी से कहा, "हनुमान! मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ। तुम्हें जिस वरदान की इच्छा हो, आज माँग लो। जो वरदान त्रिलोकी में देवताओं को भी मिलना कठिन है, वह भी मैं तुम्हें अवश्य दूँगा।" तब हनुमानजी ने अत्यंत हर्षित होकर श्रीराम से कहा, "हे रामजी! आपका नाम स्मरण करते हुए मेरा चित्त तृप्त नहीं होता।  
अतस्त्वन्नाम सततं स्मरन् स्थास्यामि भूतले।  
यावत्स्थास्यति नाम लोके तावत्कायमेव च।।  
मम तिष्ठतु राजेन्द्र वरोऽभिकाङ्क्षितः।  
समस्तयेति तं प्राह मुक्तस्तिष्ठ यथासुखम्।।  
अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड सर्ग १६-१३-१४  

हनुमानजी ने कहा, "अतः मैं निरंतर आपका नाम स्मरण करता हुआ पृथ्वी पर रहूँगा। हे राजेंद्र! मेरा मनोवांछित वर यही है कि जब तक संसार में आपका नाम रहे, तब तक मेरा शरीर भी रहे।" श्रीरामजी ने कहा, "ऐसा ही हो, तुम जीवन्मुक्त होकर संसार में सुखपूर्वक रहो।"  

महामति हनुमानजी, तपस्या करने के लिए हिमालय पर्वत पर चले गए

कल्प के अंत होने पर तुम मेरा सायुज्य प्राप्त करोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। फिर सीताजी ने हनुमानजी से कहा, "हे मारुति! तुम जहाँ कहीं भी रहोगे, मेरी आज्ञा से तुम्हारे पास समस्त भोग उपस्थित हो जाएँगे।" प्रभु श्रीरामजी और सीताजी के इस प्रकार कहने पर बुद्धिमान, महामति हनुमानजी अत्यंत प्रसन्न हुए। तदनंतर नेत्रों में आनंदाश्रु भरकर उन्हें बार-बार प्रणाम कर, बड़ी कठिनाई से तपस्या करने के लिए हिमालय पर्वत पर चले गए।  

डॉ. नरेंद्रकुमार मेहता  
'मानसश्री', मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर , उज्जैन (म.प्र.)  
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