"श्री हनुमन्नाटक" की रचना का काल निर्धारण निश्चित रूप से नहीं किया जा सकता, किन्तु यह कालजयी रचना संस्कृत साहित्य का अनमोल रत्न है। इस ग्रंथ के अंतिम श्लोक में रचनाकार ने महर्षि वाल्मीकिजी द्वारा इसकी रचना की जानकारी दी है, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में वर्णित है:
रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौनिहितममृतबुद्धया प्राङ्महानाटकं यत्।सुमतिनृपतिभोजेनोद्धृतं तत्क्रमेणग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।
(हनुमन्नाटक, अंक 14-96)
इस श्लोक के अनुसार, इस ग्रंथ को पवनकुमार (श्री हनुमानजी) ने शिलाओं पर अंकित किया था। किन्तु जब महर्षि वाल्मीकिजी ने अपनी रामायण रची, तब यह समझकर कि इस अमृत के समक्ष उनकी रामायण को कौन पढ़ेगा, उन्होंने श्री हनुमानजी से प्रार्थना करके उनकी आज्ञा प्राप्त कर इस "हनुमन्नाटक" को समुद्र में स्थापित कर दिया। राजा भोज ने कुछ विद्वानों से ऐसी अनेक किंवदंतियों को सुनकर हनुमन्नाटक को समुद्र से बाहर निकलवाया। समुद्र से प्राप्त सामग्री को राजा भोज के दरबार के विद्वान श्री दामोदर मिश्र ने क्रमबद्ध रूप से संग्रहीत किया। इसे हमारे इतिहास के रूप में विश्व की रक्षा करने हेतु संग्रहीत किया गया। यह रचना कई स्थानों पर अपूर्ण भी प्रतीत होती है, किन्तु यह हमारी संस्कृति का मार्गदर्शन करती है।
संस्कृत के नाटकों की रचना केवल गद्य के रूप में नहीं, वरन् गद्य और पद्य दोनों के सम्मिश्रण में होती थी। इन नाटकों में संस्कृत भाषा के अतिरिक्त अनेक प्रकार की प्राकृत भाषाएँ भी प्रयुक्त होती थीं।
वर्तमान समय में:
इस नाटक के दो संस्करण देश में उपलब्ध हैं। प्रथम, 'महानाटक' नाम से 9 अंकों का नाटक, जो श्री मधुसूदन मिश्र द्वारा संपादित है और इस समय बंगाल में प्रचलित है। द्वितीय, 'हनुमन्नाटक' नाम से 14 अंकों का नाटक, जो श्री दामोदर मिश्र द्वारा संकलित है और महाराष्ट्र में प्रचलित है।
इस नाटक के संबंध में जनश्रुति या किंवदंती है कि श्री हनुमानजी ने ही इस महानाटक की रचना करके पर्वतों की शिलाओं पर इसे खोदा था। जब महर्षि वाल्मीकिजी को इस बात का पता चला, तब उन्होंने इसे पढ़ा और विचार किया कि यह अत्यंत विशद रूप में वर्णित है। यदि यह रचना जनमानस के सम्मुख किसी भी तरह पहुँच जाएगी, तो उनके द्वारा रचित 'रामायण' का सम्मान कौन करेगा? यह सोचकर महर्षि वाल्मीकिजी ने श्री हनुमानजी से विनम्रतापूर्वक उन पर्वत की शिलाओं को समुद्र में विसर्जित करवा दिया। इस संबंध में दो मत हैं:
1. प्रथम मत के अनुसार, राजा विक्रमादित्य ने उसे समुद्र से निकालकर मोम पर उसके वर्णों को मुद्रित करके प्रकट किया, जैसा कि निम्न श्लोक में वर्णित है:
एष श्रीलहनूमता रचिते श्रीमन्महानाटकेवीरश्रीयुतरामचन्द्रचरिते प्रत्युदुधृते विक्रमैः।मिश्र श्रीमधुसूदनेन कविना सन्दर्भ्य सज्जीकृतेस्वर्गारोहणनामकोऽत्र नवमोऽङ्क एवेत्ससौ।।
(श्री जीवानन्द विद्यासागर द्वारा प्रकाशित महानाटक, अंक 9, श्लोक 149)
2. दूसरा मत यह है कि राजा भोज ने समुद्र से उन शिलाओं को निकलवाकर इस लुप्तप्राय रचना का अपनी सभा के पंडित श्री दामोदर मिश्र द्वारा जीर्णोद्धार करवाया, जैसा कि निम्न श्लोक में उल्लिखित है:
रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौनिहितममृतबुद्धया प्राङ्महानाटकं यत्।सुमतिनृपतिभोजेनोद्धृतं तत्क्रमेणग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।
(श्री दामोदर मिश्र संकलित, हनुमन्नाटक, अंक 14-96)
पवनकुमार श्री हनुमानजी द्वारा प्रणीत, जिस 'महानाटक' को अमर समझकर वाल्मीकिजी ने समुद्र में स्थापित करवाया, उसे नीतिज्ञ राजा भोज ने उद्धार कराया और श्री दामोदर मिश्र ने इसका क्रमबद्ध संकलन किया। यह संपूर्ण संसार का कल्याण करे। इस प्रकार राजा भोज ने समुद्र से उन शिलाओं को निकलवाकर इस लुप्तप्राय ग्रंथ को जगत में प्रकट किया।
श्री बल्लाल द्वारा रचित भोज प्रबन्ध (श्री जीवानन्द संस्करण, पृष्ठ 253) में भी ऐसी कथा प्रसिद्ध है। ऐसी ही दंतकथा "भोज कालिदास" नामक हिंदी दंतकथा संग्रह में भी है।
एक समय नर्मदा नदी के महाकुण्ड में जाल डालने वालों ने एक पत्थर का टुकड़ा पाया, जिस पर कुछ अक्षर खुदे हुए थे। इस कारण उन्होंने वह शिलाखण्ड राजा को दे दिया। शिलाखण्ड को देखकर राजा ने विचार किया कि श्री हनुमानजी ने रामायण को शिलाखण्डों पर अंकित किया था, जो किसी कुण्ड में डाल दिया गया था। यह सोचकर उस शिलाखण्ड को अपने हाथ में लेकर राजा ने श्लोक के उत्तरार्द्ध को इस प्रकार पढ़ा: *अयि! खलु विषम... कर्मणां विपाकः।* इसके पश्चात् राजा ने दरबार के विद्वान पंडितों से इसे पूरा करने के लिए कहा। पंडितों ने अपने-अपने ज्ञान व रुचि के अनुसार पूर्ति की। उस समय कवि कालिदास ने इसे पूरा किया:
शिवशिरसि शिरांसि... कर्मणां विपाकः
इसके पश्चात् उस शिला पर लिखा हुआ पूर्वार्द्ध श्लोक लाख से शोधन करने पर वही निकला, जो कालिदास ने पढ़ा था। प्रबन्धचिन्तामणि में यही कथा है, किन्तु दूसरे रूप में।
यह पुष्पिताग्रा हनुमन्नाटक (14, 49) और *महानाटक* (9-97) में मिलती है:
इह खलु विषमः पुराकृतानांभवति हि जन्तुषु कर्मणां विपाकः।शिवशिरसि शिरांसि यानि रेजुःशिव! शिव तानि लुठन्ति गृध्रपादैः।।
(हनुमन्नाटक, अंक 14-49)
यह निश्चित है कि इस संसार में पूर्वकृत कर्मों का विषम फल मनुष्यों को अवश्य भोगना पड़ता है। रावण के शिर शिवजी के मस्तक पर सुशोभित थे, किन्तु अत्यंत शोक की बात है कि आज वे गृध्रों के पैरों में लोट रहे हैं। यह नाटक निश्चय ही जल से निकाला गया, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इस किंवदंती में इतना सत्य अवश्य है कि यह नाटक किसी मंदिर की दीवारों की प्रस्तर-इष्टिका पर अंकित रहा होगा, जो कालांतर में ध्वंस हो गया और अपने समीप के कुण्ड में गिर पड़ा। अथवा संस्कृत साहित्य के उत्थानकर्ता प्रसिद्ध परमारवंशीय राजा भोज ने अपने आश्रित साहित्य-मर्मज्ञ राजकवियों द्वारा इसका उद्धार करवाया हो।
हनुमन्नाटक में श्रीरामकथा का अपना विशेष स्थान है। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण रेखा का उल्लेख लगभग नहीं है, किन्तु इस महानाटक में लक्ष्मण रेखा का दो बार उल्लेख है:
1. स व्याधर्मिणि! देहि भिक्षामलंघयल्लक्ष्मणलेखाम्।
जग्राह तां पाणितलक्षिपन्तीमाकारयन्तीं रघुराजपुत्रौ।।
(हनुमन्नाटक, अंक 4-6)
वह रावण, लक्ष्मणजी द्वारा खींची हुई रेखा को न लाँघकर बाहर से ही कहने लगा, "हे अतिथि-सेवा आदि को धर्म की जानने वाली नारी! भिक्षा देहि।" यह सुनकर जैसे ही सीता रेखा से बाहर होकर रावण के हाथ में भिक्षा देने लगीं, वैसे ही रावण उन्हें उठाकर ले गया। उस समय सीता "हा राम! हा लक्ष्मण!" इस प्रकार बार-बार पुकारती रह गईं।
2. अंगद-रावण संवाद में लक्ष्मण रेखा का दूसरा उल्लेख है। अंगद रावण से कहते हैं कि श्रीराम से युद्ध करना तो बहुत दूर की बात है, पहले तुम लक्ष्मणजी की रेखा तो पार नहीं कर सके:
रे रे रावणशंभुशैलमथनप्रख्यातवीर्यः कथं
रामं योद्धुमिहेच्छसीदमखिलं चेत्तेन्न युक्तं तथा।
रामस्तिष्ठतु, लक्ष्मणेन धनुषा रेखा कृताऽलङ्घिता
तच्चारेण च लंघितो जलनिधिर्दग्धाः हतोऽक्षः पुरी।।
(हनुमन्नाटक, अंक 8-36)
अंगद: "अरे रे रावण! शिवजी के कैलास पर्वत को उठाने से प्रसिद्ध पराक्रमवाला होकर अब तेरी इच्छा रामजी से लड़ने की हो रही है। ये सब तेरे विचार ठीक नहीं! कारण—रामजी की तो बात ही छोड़ो, लक्ष्मणजी द्वारा खींची हुई धनुष रेखा को तू न लाँघ सका, किन्तु उनका एक सामान्य दूत इतने विशाल महासागर को लाँघकर आया, राजकुमार अक्षय को मारकर लंकापुरी जलाकर फिर समुद्र लाँघकर पार चला गया।"
लक्ष्मण रेखा का उल्लेख श्रीरामचरितमानस में मात्र एक बार संकेत रूप में मंदोदरी द्वारा रावण को समझाइश के रूप में श्रीराम से युद्ध न करने और सीताजी को लौटाने के लिए किया गया है:
कंत समुझि मन तजहु कुमतिहि। सोह न समर तुम्हहि रघुपति ही।।
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाधेतुअसि मनु साई।।
(श्रीरामचरितमानस, लंकाकाण्ड 36-1)
मंदोदरी कहती हैं, "कान्त! मन में समझकर कुबुद्धि को त्याग दो। आप और श्रीरघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक छोटी-सी रेखा खींच दी थी, उसे आप लाँघ नहीं सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है।"
हनुमन्नाटक में बालिवध का प्रसंग भी अन्य श्रीरामकथाओं से भिन्न है:
बालिः (प्राणांस्त्यक्तुमिच्छन्)
सुग्रीवोऽपि क्षमः कर्तु यत्कार्यं तव राघव।
किहिमं न क्षमः कस्यादपराधं विना हतः।।
(हनुमन्नाटक, अंक 5-56)
बालि (प्राणों को छोड़ने की इच्छा करता हुआ): "हे राघव! आपके जिस कार्य को सुग्रीव कर सकता है, उसे क्या मैं नहीं कर सकता था? फिर बिना किसी अपराध के मुझे मारा।"
यह सुनकर श्रीराम ने जो प्रत्युत्तर दिया, वह अन्य श्रीरामकथाओं से अपनी एक अलग विशेषता रखता है:
रामः (सवाष्पम्)
शुद्धिर्भवष्यति पुरन्दरनन्दन त्वं
मामेव चेदहह पातकिनं शयानम्।
सौख्यार्थिनं निरपराधिमाहनिष्य-
स्यास्मात्पुनर्जनकजाविरहोऽस्तु मा मे।।
(हनुमन्नाटक, अंक 5-57)
श्रीराम (नेत्रों में आँसू भरकर): "हे सुरपति (इंद्रनंदन) बालि! जब तू मुझ पातकी निरपराधी को सुख की इच्छा से सोते में मारेगा, तब ही मेरे चित्त की शुद्धि होगी। इस प्रकार तुझे मारने के अपराध से अब पुनः मुझको जानकी का विरह न होगा।"
लंकादहन का प्रसंग हनुमन्नाटक में अद्वितीय है। जब लंका जलकर भस्म हो रही थी, तब रावण के मन में उसके कारण का ज्ञान हुआ, जिसका वर्णन अत्यंत अद्भुत है:
तुष्टः पिनाकी दशमिः शिरोभिस्तुष्टो न चैकादशमो हिरुद्रः।
अतो हनुमान् दहतीति कोपात्पंक्तोहिं भेदो न पुनः शिवाय।।
(हनुमन्नाटक, अंक 6-27)
रावण (मन ही मन): "यदि यह पवनकुमार रुद्रावतार हैं, तो मुझ रुद्र भक्त की नगरी (लंका) को क्यों भस्म कर रहे हैं? ओह, समझ गया! पिनाकधारी महादेवजी मेरे दसों शिरों के चढ़ाने से तो प्रसन्न हो गए, किन्तु मेरे पास ग्यारहवाँ शिर था ही नहीं, इसलिए ग्यारहवें रुद्र संतुष्ट न हो सके। अतः (ग्यारहवें रुद्र के अवतार) हनुमान् इसी कोप के कारण लंका को भस्मीभूत कर रहे हैं। ठीक है, पंक्ति में भेदभाव रखना कभी भी मंगलदायक-कल्याणकारी नहीं होता।"
हनुमन्नाटक में अंतिम प्रसंग में श्रीराम और मंदोदरी का प्रसंग देखते ही बनता है। संभवतः यह कथा प्रसंग किसी अन्य श्रीरामकथाओं में देखने को प्राप्त नहीं होता। रावण के वध उपरांत मंदोदरी ने श्रीराम से कहा:
धन्या। राम। त्वया मन्दोदरी माता धन्यो राम! त्वया पिता।
धन्यो राम! त्वया वंशः परदारान् न पश्यसि।।
(हनुमन्नाटक, 14-59)
मंदोदरी: "आप परायी स्त्री की ओर दृष्टि उठाकर नहीं देखते, इसलिए हे राम! आपके जन्म से माता धन्य हुई। हे राम! आपकी उत्पत्ति से पिता प्रशंसनीय हुए। हे राम! आपके उत्पन्न होने से वंश धन्य हुआ। साधु राम! साधु! अतः अब मेरी क्या गति होगी?"
राम:
महाभागे! न खलु राक्षसीनां
सहगमने धर्मः। अतस्त्वया विभीषणालयमास्थाय लंकाचले राज्यं चिराय गुज्यताम्।
(इति विभीषणं लंकाधिपत्याभिषेकं नाट्यति)
राम: "हे भगवती! राक्षसियों के लिए पति के साथ सती होने का धर्म नहीं है। इसलिए आप विभीषण के राजमहल में रहकर लंकानगर में चिरकाल तक राज्य का उपयोग करें।" ऐसा कहकर विभीषण के राज्याभिषेक का अभिनय करते हैं।
पुनः अंत में इस ‘महानाटक’ का संक्षिप्त इतिहास बताना आवश्यक है कि राम विजय नामक अंतिम चौदहवें अंक के अंत में वर्णन है कि पहले पवनकुमार हनुमानजी द्वारा प्रणीत (रचित) जिस महानाटक को अमर समझकर वाल्मीकिजी ने सागर में स्थापित करवाया, उसे नीतिज्ञ राजा भोज ने समुद्र से निकलवाया और मिश्र दामोदर ने उसका क्रमबद्ध संकलन किया। यह निखिल संसार की रक्षा करे तथा कल्याण करे।
प्रेषक: डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता - मानसश्री, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर, उज्जैन (मध्य प्रदेश)