क्यों ना अध्यापक आंदोलन की कमान लाडली बहनों को सौंप दी जाए - Khula Khat

अध्यापकों की बदकिस्मती कहें या फिर दुर्भाग्य कि वह सरकारों के हाथ तो बहुत कम किंतु अपने ही आकाओ द्वारा कई बार इस कदर छला गया है कि अब तो अध्यापकों को अपने साए तक से अविश्वास होने लगा है।

सच तो यह है कि हमारे नेताओं का उद्देश्य कदापि अध्यापक हित नही था। यदि अध्यापक हित की लड़ाई का उद्देश होता तो क्यू सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की अनुमति की जरूरत होती। आपमें यदि अध्यापकों के नेतृत्व का माद्दा होता तो आप बिना अनुमति के एक तय दिनांक को प्रदेश के अध्यापकों को राजधानी में बुलाकर सीधे सरकार को चुनौती देते तब तो आपकी विश्वसनीयता बरकरार रहती और आपका नीचे तक अध्यापक मान सम्मान करते। 

जिस तरह का अंदरूनी घटनाक्रम चल रहा था, उसको देखते हुए अनुमति तो निरस्त होना ही थी। फिर भी यदि आप चाहते तो अनुमति निरस्त के साथ ही एक अपील यह भी करते की कुछ भी हो तय समय और दिनांक को ही अध्यापकों का आंदोलन होगा। अगर हमारे नेताओं की ओर से एक अपील भर भी होती तो आपकी बात में दम दिखता और अध्यापक आपका होता। लेकिन कुल मिलाकर यह नेताओं के एक अपनी व्यक्तिगत शक्ति प्रदर्शन करने का ड्रामा था। जिसके एक निरस्ती भर के आदेश ने हवा निकाल दी है। 

लेकिन इस ड्रामे से एक बार फिर प्रदेश का अध्यापक अपने ही नेतृत्वकर्ताओं के हाथों छला गया है, जिसके घाव भविष्य में लंबे समय तक हरे रहेंगे। अच्छा हुआ अनुमति निरस्त हो गई और हकीकत सामने आ गई वरना आम अध्यापक कितना और छलाता यह कह नही सकते।

हमारे अपने अध्यापक नेता तो अमूमन रोज ही सत्ता के गलियारों में घूमा करते है। सीएम हाउस में जाना किसी भी अध्यापक नेता के लिए कोई बड़ी बात नहीं है, फिर क्यू नही हमारे नेता सीएम से मिलकर अध्यापक हितार्थ एक शिक्षक महासम्मेलन ही आयोजित करवाने में विफल क्यू रहे। अगर हमारे नेतृत्वकर्ता चाहते तो दूसरे अन्य संगठनों की तरह अध्यापकों शिक्षकों का महासम्मेलन हो सकता था लेकिन हमारे नेताओं की निजी महत्वकांक्षाओ चलते महासम्मेलन से ज्यादा 20 का शक्ति प्रदर्शन जरूरी था। 

खैर, कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकला है कि साढ़े चार लाख से ज्यादा अध्यापकों के कुनबे में मुरलीधर पाटीदार जैसा दूसरा नेतृत्व घड़ेंगे नही जो खुलेआम कहीं से भी सरकार को ललकार, भोपाल भरकर आंदोलन करने का माद्दा रखता हो, तब तक अध्यापकों के नेताओ लिए आंदोलन करने की बात सोचना भी बेमानी होगी। आज प्रदेश के अध्यापकों को सरकार की आंख में आंख डालकर बात करने वाला मुरली जैसा नेता चाहिए जो  सरकार के सम्मुख ही ना कहकर जेल जाना पसंद करता था। न कि सरकार के पीछे पीछे चलना मंजूर था। 

आज कुछ नौसिखिए नेताओ व अध्यापकों के लिए मुरलीधर पाटीदार को गाली देना बड़ा आसान है लेकिन मुरलीधर पाटीदार जैसा नेता बनना बड़ा कठिन है। अब प्रदेश के अध्यापकों को यह सोचना है कि उन्हें केसा नेतृत्व चाहिए। हमने अब तक हर आंदोलन पुरुष नेतृत्व के आह्वान तले किया है। क्यू न एक आंदोलन हमारी मातृ शक्ति बहनों के नेतृत्व में किया जाए। हो सकता है बहनों के नेतृत्व में बुढ़ाती अध्यापकों की आंखो में विश्वास जागृत हो जाए और कुछ बेहतर हो जाए। अरविंद रावल झाबुआ (मध्य प्रदेश) 

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