RTE घोटाला, सरकारी शिक्षा के निजीकरण का नया तरीका है, सावधान सारे स्कूल बंद हो जाएंगे | KHULA KHAT

Bhopal Samachar
संजय तिवारी। शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के प्रावधान अनुसार गैर अनुदान प्राप्त अशासकीय शालाओं में उनकी प्रवेश संख्या का न्यूनतम 25 न्यूनतम प्रतिशत कमजोर वर्ग एवं वंचित समूह के लागू है ये 25% तो अनिवार्यता का न्यूनतम मापदंड है, अधिकतम तो कितना भी हो सकता है, जिसका कोई दायरा नहीं है, यही वजह है कि अच्छे बच्चे स्कूल न्यूनतम 25% काही दायरा मजबूरी बस पूरा करते हैं लेकिन इसके विपरीत नियम विरुद्ध चल रहे छोटे छोटे निजी स्कूल चाहते है कि अधिकतम जितने भी बच्चे भरती हो, उतना ही अच्छा। निशुल्क शिक्षा के नाम पर भरती हो, ताकि बिना मेहनत किए बच्चों के नाम पर मिल रही सरकारी फीस उन्हें मिलती रहे। चूंकि शुल्क पूर्ति तो शासन की ओर से ही होती है। 

विगत वर्षो में पीछे जाए तो निजी स्कूलों का लक्ष्य पूरा न होता देख शिक्षा विभाग के अधिकारियों की नजर अपने शिक्षकों पर पड़ी, शिविर लगे, निजी स्कूल के प्रचार-प्रसार में सरकारी शिक्षकों की सेवाएं ली गईं, जनशिक्षक बीएसी लगाए गए, नतीजे सरकारी स्कूलों में बच्चे पहले से भी कम हो गए। पिछले वर्षों में प्रदेश में हजारों सरकारी स्कूल बंद हुए, साल दर ये संख्या निरंतर और कम होगी, स्कूल भी हर साल बन्द होंगे, वजह साफ है, प्रदेश भर में पान दुकानों की तरह हर गली कूंचे में खुले ऐसे प्राइवेट स्कूल जिनका RTE के नियमो से दूर दूर तक वास्ता नहीं, लिफाफा की दम पर बड़ी शान से फल फूल रहे हैं। 

आंगनबाड़ियों से सांठ गांठ कर उनमें दर्ज 3 से साढ़े तीन के बच्चे को अपनी स्कूल में दर्ज कर लेते है, ऐसे में हिंदी मीडियम के सरकारी स्कूलों को 6 वर्ष के नव प्रवेशी बच्चे मिलेंगे कहां से? वैसे अधिकांशत: सरकारी स्कूलों के शिक्षको को इससे कोई लेना देना नहीं होता, क्योंकि सरकार उन्हें तनख़ाह जो दे रही है, फिर कपड़ों की क्रीज खराब करने से क्या फायदा, क्षेत्र में संपर्क और स्कूल का भेाैतिक स्तर सुधारने के लिए कुर्सी से उठने का कष्ट क्यों करे? जबकि शिक्षक यदि ठान ले तो जन सहयोग या अपने जुड़े संगठन की मदद लेकर उनके क्षेत्र में एक भी नियमविरुद्ध स्कूल नहीं चलने दे। 

जब शिक्षक अपने वेतन भत्तों के लिए लड़ सकता है तो अपने क्षेत्र में चल रहे RTE के दायरे से बाहर संचालित नियम विरुद्ध स्कूलों की मान्यता के खिलाफ क्यों नहीं? इसके लिए सीएम हेल्पलाइन, लोकायुक्त जैसे अनेक माध्यम आपके पास है, जब आप बोलेंगे ही नहीं, तो किसे क्या पड़ी है। वास्तव में RTE के मापदंडो के विरुद्ध निजी स्कूलों को मान्यता देना, लेना आर्थिक अपराध की श्रेणी में आता है। चूंकि निशुल्क शिक्षा के नाम पर सरकारी धन का उपयोग होता है लेकिन नहीं साहब हम शिक्षकों ये बाते तो तब याद आती है, जब या तो हमारा स्कूल बन्द होने की कगार पर पहुंच जाता है, या फिर हम अपनी संस्था से अतिशेष होने की स्थिति में आने लगते हैं। 

मेरी बात गलत हो तो बताएं, ये बड़ी दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है आजकल ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में सरकारी शिक्षकों के माध्यम से प्रचारित कराया जा रहा है कि बच्चे शहर/कस्बों के निजी स्कूलों में प्रवेश लें। अब आम लोग यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हो चुके हैं कि उनके क्षेत्र का स्कूल और उनके शिक्षक नाकाबिल हैं। अभिभावक जानते हैं कि ऊंचे निजी स्कूलों में उनके बच्चे पहले दिन से ही हीनता बोध से ग्रस्त होने लगेंगे। अभिभावकों की हिचक स्वाभाविक है। बड़ी जगह छोटा बनकर रहने की अपेक्षा छोटी जगह बड़ा बनकर रहना अच्छा है। जिन निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए लंबी प्रतीक्षा सूची रहती है, उनकी रुचि इन बच्चों को प्रवेश देने में नहीं होती। सरकार प्रतिपूर्ति राशि देने में देर करती है। 

इनमें जो अन्य प्रकट-अप्रकट शुल्क लिए जाते हैं, उन्हें ये बच्चे दे नहीं पाते। इसलिए इन बच्चों को प्रवेश देकर ये स्कूल भला क्यों अपनी दुकानदारी और उसका स्तर बिगाड़ेंगे? तो मतलब साफ है कि सरकारी स्कूलों की संख्या का खेल बिगाड़ने में आरटीई के नियम विरुद्ध मान्यता लेकर चल रहे ये छोटे-छोटे निजी स्कूल ही जवाब देह है, शिक्षक समाज को चाहिए कि एक मुहिम के तहत ऐसी नियम विरुद्ध चल रही शिक्षा की दुकानों को बंद कराएं। 
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