रमेश पाटिल। भारत में बहुत से राजनीतिक घराने ऐसे है जिनको घर बैठे पुरानी पेंशन (Old pension) से इतनी कमाई होती है जितनी रात-दिन मेहनत कर पसीना बहाने वाले 99% भारतीयो की वार्षिक कमाई (Annual earnings) नही होती। इस 99% भारतीयो में छोटे उद्योगपतियो, व्यापारियो और बडे किसानो को भी शामिल किया जा सकता है। कर्मचारी, छोटे किसान और मजदूर वर्ग से तो राजनीतिक पेंशनधारी घरानो की तुलना ही नही की जा सकती। इनके सामने हमेशा भविष्य का आर्थिक संकट खडा रहता है।
सवाल यह उठता है कि क्या जनता-जनार्धन ने इन राजनीतिक घरानो को इतनी शक्ति सौंप दी है कि ये संविधान की भावना के उलट तथाकथित सेवा के बदले कई पीढीयों तक मेवा खाने के योग्य हो गये है। लगता है स्वतंत्र भारत में हम भारतीय इन प्रसिद्ध परिवारो के प्रसिद्धि के मानसिक गुलाम हो गये है इसलिए इनके ही पारिवारिक सदस्यों को बार-बार राजनीतिक नेतृत्व का अवसर प्रदान करते है और नये सेवाभावी लोगो को राजनीति में आने के लिए दरवाजे बंद कर देते है।
संविधान में सांसदो विधायको को पुरानी पेंशन का उल्लेख नही है लेकिन व्यवस्थापिका स्वार्थ से वशीभूत हो जाए और जनता-जनार्धन प्रसिद्धि के मोहपाश में बंधकर राजनीतिक घरानो का अंध समर्थन करने लग जाए तो कुछ भी हो सकता है। पत्थर से पानी और रेत से तेल निकल सकता है। बगैर कोई व्यवसाय किये राजनीतिक घरानो और राजनीतिक लोगो की आय हर अगले चुनाव तक सैकडो गुणा तक बढ सकती है जिसे हम देख भी रहे है।
साधु-संत, ऋषि-मुनि, समाजसेवी, ज्ञानी-विज्ञानी, महापुरूष, देशभक्त, क्रांतिकारी आदियों ने भी देश-समाज की सच्चे भाव से सेवा की है और आज भी समर्पित भाव से अनेकोनेक व्यक्ति सच्ची सेवा में बगैर प्रसिद्धि की लालसा और बगैर आर्थिक उपार्जन की कामना किये लगे हुए है ताकि देश-समाज में खुशहाली की बयार आये, विभिन्न जाति-धर्म के लोगो में प्रेम-अपनत्व-भाईचारा बढे।
राजनीतिक लोग और कुछ घराने हमारे वोट की ताकत से इतने शक्तिशाली हो गये है कि उनके द्वारा की गई सेवा की व्याख्या आज तक करने का साहस कोई मानवीकी विज्ञानी भी नही कर पाया है। ये राजनीतिक लोग संविधान की उदारता का दुरूपयोग कर अपने द्वारा की गई सेवा की व्याख्या स्वयं व्याख्याकार बन करने लगे है। हर कार्यकाल के लिए अपने और अपने जीवन साथी के लिए पुरानी पेंशन और सुविधाओ का प्रावधान कर लिया है। देश पर पढ रहे असंवैधानिक आर्थिक बोझ और देशवासियों की चिंता से बेफिक्र लगते इन राजनीतिक लोगो की मनोवृत्ति को देखकर बरबस ही भेड़िया के झुंड का स्मरण हो आता है। भेडियों का झुंड जब शिकार पर योजना बनाकर हमला करता है तो दया का चोला उतारकर अपने शिकार के प्राणांत करके ही दम लेता है ताकि शिकार का बडा हिस्सा जल्दी से जल्दी गिटक सके। शिकार करते भेडियों के झुंड के किसी भी सदस्य में अपने शिकारी की अंतिम हश्र के बारे में वैचारिक मतभेद नही होता। बस वैसे ही राजनीतिज्ञ जब अपने लिए पुरानी पेंशन, सुविधाए और वेतन भत्ते बढाने के लिए भेडियों के झुंड की तरह एकजुट होकर पक्ष-विपक्ष का भेद भूल जाते है। सब एक ही रंग में रंगे नजर आते है।
सेवा के बदले देश पर बोझ बनते जा रहे राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने के लिए कर्मचारियो के चयन की तरह योग्यता का कोई पैमाना नही है। वर्तमान में प्रतिनिधित्व करते राजनीतिज्ञ जनता के मन में अभी से ये भाव भर देते है कि मेरी संतान ने ही राजनीति के नैसर्गिक, ईश्वरीय गुणो के साथ जन्म लिया है जो मेरे विरासत संभालने और जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस संसार में सर्वोत्तम है। भावुक जनता इसे स्वीकार कर लेती है। यही से राजनीतिक घरानो का उदय विस्तार और देश पर आर्थिक बोझ का क्रम एकसाथ शुरू हो जाता है।
शासकीय सेवा में आने के लिए लम्बा कठिन परिश्रम और योग्यता का प्रदर्शन करना पडता है। शासकीय सेवा में आने के बाद जीवन के उत्तरार्ध तक सेवा का क्रम चलते रहता है। शासकीय सेवा में सेवक के व्यक्तिगत जीवन में अनेक अघोषित प्रतिबंध लग जाते है सेवा महत्वपूर्ण हो जाती है। शासकीय सेवक को अपने जीवन का अधिकांश भाग त्यागमयी जीवन जीना होता है। इसलिए संविधान निर्माता डाॅ• बाबासाहेब ऑम्बेडकर जी ने शासकीय सेवक के सम्पूर्ण जीवन का आकलन करते हुए संविधान में शासकीय कर्मचारियो के लिए नियमित पेंशन, पारिवारिक पेंशन, जीपीएफ, उपादान, बीमा आदि सुविधाओ का उल्लेख कर रखा था ताकि उसका बुढापा और जीवनसाथी का अंतिम जीवन सुरक्षित, सम्मानजनक ढंग से गुजर सके।
पता नही कहा से एक छद्मी देशभक्त आया? उसने अपने हमपेशा लोगो के लिए एक ही जीवन में अनेक पुरानी पेंशन का प्रावधान कर सारे आमोद-प्रमोद के साधन जुटा दिए और देशहित के नाम पर जीवन का अधिकांश भाग देशहित में समर्पित करने वाले शासकीय कर्मचारियो की पुरानी पेंशन, नेशनल पेंशन स्कीम के काल्पनिक लाभ बता कर एक अध्यादेश के जरिए छीन लिए। इस घटना के बाद सम्पूर्ण भारत के शोषक प्रवृत्ति के लोगो के मुंह पर ताले लग गए। शोषण का सशक्त विरोध नही हुआ और शोषक वर्ग को शोषण करने की हरी झंडी मिल गई।
शोषित शासकीय कर्मचारियों की आंख खुली, सत्य का सामना हुआ तो नेशनल पेंशन स्कीम का विकृत रूप सामने आया। उस छद्मी देशभक्त ने उद्योगपतियो के लिए आर्थिक संसाधन की स्थायी व्यवस्था शासकीय कर्मचारियो के शोषण के कीमत पर कर दी थी साथ ही राजनीतिक दलो को चलाने के लिए चंदे का स्थायी जुगाड भी कर लिया था।
अधिकांश समस्या की जड यही है कि सत्य का साथ नही दिया जाता और शोषण का विरोध करने की जगह हम कर्मचारी और जनता-जनार्धन मौनी बाबा बन देखते रहते है। मुख्य राजनीतिक दलो के पास सबके लिए कुछ न कुछ खैरात बाटू योजना है, चाहे वह उद्योगपति हो, व्यापारी हो, किसान हो या मजदूर हो लेकिन शासकीय कर्मचारियो के लिए संविधान में उल्लेखित पुरानी पेंशन बहाली की कोई योजना नही है, ना ही अन्य आवश्यक सुविधाए देने की योजना है।
पेंशन पुरूष श्री विजय कुमार बंधु के नेतृत्व में देश का 60 लाख पुरानी पेंशन विहीन कर्मचारी जाग चुका है, गोलबंद हो चुका है। स्वेच्छा से नही दोगो तो हम संघर्ष से पुरानी पेंशन बहाल कर लेगे।
रमेश पाटिल, कोर कमेटी सदस्य, NMOPS मध्यप्रदेश