MP किसान आंदोलन: जब मां थप्पड़ मारे तो उसे उपद्रवी नहीं कहते

उपदेश अवस्थी/भोपाल। मप्र में किसान आंदोलन तो कई बार हुए परंतु ऐसा क्या है कि इस बार किसान इतना उग्र हो रहा है। क्यों हर जुल्म, हर दर्द को चुपचाप सहने करने वाला किसान हाथों में पत्थर लिए सड़कों पर आ गया है। ये कश्मीर नहीं है, जहां आम जनता के साथ आतंकवादी शामिल हो गए हों। राजनैतिक बयानों में कोई वजन नहीं है। कांग्रेस में इतना दम नहीं है कि वो ट्रकों में आग लगा दें और ना कांग्रेस नेताओं का इतना वजूद कि किसान उनके भड़काऊ बयानों से प्रेरित होकर चौकियां जला दें। मामले की गंभीरता को समझना होगा। वो किसान है, सरकारी कर्मचारी नहीं है। उसे आचार संहिता का ज्ञान नहीं है। वो तो कुछ सीधे साधे सिद्धांत समझता है बस। हमको यह स्वीकारना होगा कि पिछले कु्छ दिनों में सरकार ने ऐसे फैसले लिए हैं जिसने किसानों को हिंसक बना दिया। लोन में कुर्की के डर से किसान आत्महत्या कर सकता है परंतु फसल बेचने के बाद यदि पैसे ना मिलें तो किसान आत्महत्या नहीं करेगा। कोई भी आत्महत्या नहीं करेगा। वो उग्र हो जाएगा। यही तो किसान भी कर रहे हैं। ध्यान रखो। जब मां थप्पड़ मारे तो उसे उपद्रवी नहीं कहते, विचार करते हैं कि ऐसी क्या गलती हो गई जो मां इतनी नाराज है। 

नोटबंदी और डिजिटल पेमेंट सिस्टम के कारण किसान आंदोलन उग्र हो गया है। मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा आंदोलन का अध्ययन करने के बाद निकाला गया निष्कर्ष है। उनका कहना है कि नोटबंदी के बाद नकदी रहित लेन-देन को बढ़ावा देना, बिजली संकट एवं सीमित मात्रा में बेचे जा रहे ‘डोडा चूरा’ की बिक्री पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाना कुछ ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन उग्र हो गया। 

डूडा चूरा बेचने पर प्रतिबंध
पश्चिमी मध्यप्रदेश के इस अधिकारी ने कहा, ‘‘केन्द्र एवं राज्य सरकार ने पिछले दो साल से मंदसौर एवं नीमच जिले के किसानों के डूडा चूरा बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसने हजारों किसानों विशेष रूप से मजबूत माने जाने वाले पाटीदार समुदाय के लोगों को बेरोजगार बना दिया है।’ गौरतलब है कि अफीम की खेती से डूडा चूरा निकलता है और इसका सेवन करने से नशा होता है। इसका उपयोग कुछ दवाइयों को बनाने में भी किया जाता है।

नोटबंदी के कारण समस्या
नोटबंदी के कारण किसानों को अपना सारा पैसा बैंकों में जमा करना पड़ा। इसके चलते किसानों के घरों में नगदी की कमी आ गई। सरकारें विकास के कितने भी दावे कर लें लेकिन आज भी गांव गांव में एटीएम मशीनें नहीं हैं। किसानों का सहारा सहकारी बैंक हैं जहां नगदी नहीं होती। नोटबंदी के बाद अपना पैसा बैंक से वापस निकालने के लिए किसानों को सहकारी बैंक के अधिकारियों के जितने जुल्म सहन करने पड़े। वो अपने आप में काफी है किसी भी आम आदमी को उग्र कर देने के लिए। 

डिजिटल भुगतान बड़ी और प्रमुख वजह
अधिकारी ने कहा कि इसके अलावा राज्य सरकार के उस कदम से जिसके तहत मंडियों में किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए नकद पैसे देने की जगह डिजिटल भुकतान किया जा रहा है, इसने भी उनकी समस्याओं को और बढ़ाया है। उन्होंने बताया कि मंडियों में अपनी उपज को बेचने के बाद किसानों को चैक दे दिए गए। किसान चैक लेकर बैंक में गया तो बैंक अधिकारियों ने यह कहकर भगा दिया कि बैंक में नगदी नहीं है। किसान महीने भर से हर रोज बैंकों के चक्कर लगा रहे हैं। कई बार बैंकों के बाहर प्रदर्शन कर  चुके हैं। मप्र का ऐसा कोई कलेक्टर/एसडीएम नहीं है जिसके यहां इस संदर्भ में ज्ञापन नहीं दिया गया हो। समस्या आज तक नहीं सुलझी। किसान आंदोलन के बाद भी नहीं सुलझी। 

बिजली कंपनी की दादागिरी 
उन्होंने कहा कि विद्युत आपूर्ति की कमी के कारण सिंचाई के लिए किसान डीजल से चलने वाले पंपों का उपयोग कर रहे हैं। यदि किसान बिजली के बिल का तुरंत भुगतान करने में चूकता है तो क्षेत्र की बिजली वितरण करने वाली कंपनी किसानों का बिजली कनेक्शन काट देती है। गांव के आधे से ज्यादा किसान यदि बिल जमा करने में देरी करते हैं तो पूरे गांव की बिजली काट दी जाती है। इसके अलावा प्रदेश में भ्रष्टाचार के चलते वे उर्वरकों को कालाबाजारी करने वालों से बहुत उंचे दामों पर खरीद रहे हैं। इससे उनकी कृषि उपज की लागत बढ़ गई है।

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