विंध्य के सपूत अर्जुन सिंह का जीवन परिचय - BIOGRAPHY OF ARJUN SINGH

विवेक सिंह।
विंध्य की माटी के सपूत एक छोटी सी जागीर से जनम लेकर भारत की राजनीति के क्षितिज पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कुंवर अर्जुन सिंह की यादों का अब अवशेष शेष रह गया है। चुरहट जागीर के राव घराने में 5 नवंबर 1930 को जन्में अर्जुन बीमारी के बाद राज्यसभा सदस्य रहते हुए 4 मार्च 2011 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

आज भी भारतीय राजनीति में उन्हे शोषित, दलितों, अल्पसं यकों एवं पिछड़ा वर्ग के लिए संघर्ष व आरक्षण की मांग को लेकर आवाज उठाने वाला राजनेता के तौर पर याद किया जाता है। जिले में उन्हे दाऊ साहब के नाम से ही पुकारा जाता है।

स्वयं के व्यक्तित्व से राजनीति की शुरूआत

कुंवर अर्जुन सिंह अपनी राजनीति की शुरूआत किसी दल के सहारे नहीं बल्कि अपने स्वयं के व्यक्तित्व से शुरू किए। वर्ष 1952 में तत्कालीन विंध्य प्रदेश के चुरहट में जवाहरलाल नेहरू चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे थे, जहां मंच से उनके द्वारा अर्जुन सिंह के पिता राव शिवबहादुर सिंह को विधानसभा चुनाव का प्रत्याशी घोषित किया गया। किंतु चुरहट से रीवा पहुंचने के बाद जवाहर लाल नेहरू ने फिर घोषणा कर दिए कि चुरहट से मेरे पार्टी का कोई प्रत्याशी नहीं है उसके बाद भी राव शिवबहादुर सिंह निर्दलीय प्रत्याशी बतौर चुनाव लड़े किंतु वे चुनाव जीत नहीं पाए। जिसका अर्जुन सिंह पर गंभीर असर हुआ, और वे स्वयं के व्यक्तित्व से राजनीति के मैदान में कूद पड़े, फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

1957 में पहली बार बने थे विधायक

युवावस्था की दहलीज पर कदम रख चुके अर्जुन सिंह अपने पिता की बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुरहट की हार के बाद राजनीति की ओर सक्रिय हो चले। वर्ष 1957 में अर्जुन सिंह कांग्रेस का टिकट लेने के लिए तैयार नहीं हुए और कांग्रेस से अपनी हार का बदला लेने के लिए निर्दलीय प्रत्याशी बतौर चुरहट विधानसभा चुनाव में उतरे जहां सोशलिस्ट के गढ़ को ढहाते हुए, कांग्रेस से अपने पिता के अपमान का बदला लेते हुए वे विधायक निर्वाचित हुए।

....जब नेहरू ने बुलाया दिल्ली

उस समय कांग्रेस के संदर्भ में कहा जाता था कि यदि कांग्रेस किसी लैंपपोस्ट को भी टिकट दे दे तो उसकी जीत पक्की है। अर्जुन सिंह ने कांग्रेस की इस मिशाल को तोडऩे में सफल रहे। वर्ष 1961 में मप्र विधानसभा में एक प्रस्ताव रखा गया कि प्रत्येक विधायक को अपनी संपत्ति का सत्यापन कर विधानसभा पटल पर रखी जाए, इस प्रस्ताव के समर्थन मे कुंवर अर्जुन सिंह द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा गया। अर्जुन सिंह के पत्र से नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अर्जुन सिंह को दिल्ली बुला लिया जहां बंद कमरे मे उनके साथ काफी देर तक चर्चा की। इस मुलाकात में अर्जुन प्रभावित होकर बाहर निकले और कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा कर दिए।

1977 में बने थे नेता प्रतिपक्ष

वर्ष 1977 में कांग्रेस अल्पमत में आ गई और प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी, जिससे मप्र विधानसभा का नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस के द्वारा अर्जुन सिंह को बनाया गया। किंतु अर्जुन सिंह ने विपक्ष की भूमिका का भी जिस बुद्धिमकता से निर्वहन किया भारतीय राजनीति मे उनके समान दूसरे नेता प्रतिपक्ष में ऐसे उदाहरण नहीं मिलते।

जनता सरकार को कर दिया था मजबूर

तीन वर्ष के नेता प्रतिपक्ष कार्यकाल में उनके द्वारा तत्कालीन प्रदेश सरकार को तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलने को मजबूर कर दिए। जिसमें कैलाश जोशी, विरेंद्र सकलेचा एवं सुंदरलाल पटवा शामिल हैं। उसके बाद राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद चुनाव कराया गया। जिसमें कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ आई।

तीन मर्तवा रहे मुख्यमंत्री

मध्यप्रदेश की राजनीति मे सक्रिय भूमिका मे आ चुके अर्जुन सिंह जनता दल की सरकार ढहाने के बाद हुए चुनाव मे जब कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ आई तो मुख्यमंत्री के लिए कांग्रेस आलाकमान ने तमाम विरोधों के बावजूद अर्जुन सिंह को ही मुख्यमंत्री घोषित किया। वर्ष 1980 मे अर्जुन सिंह पहली मर्तवा मप्र के मुख्यमंत्री बने, और पूरे पांच वर्ष तक शासन किया, इसके बाद दूसरी बार एक वर्ष एवं तीसरी बार भी एक वर्ष तक मप्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। उसके बाद प्रदेश की राजनीति को छोंड़ वे कांग्रेस की केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो गए।

नई दिल्ली सीट से पहली बार सांसद

नई दिल्ली की लोकसभा सीट तत्कालीन सांसद की मौत होने से खाली हो गई थी। अर्जुन सिंह को वहां से चुनाव लड़ाने का निर्णय कांग्रेस ने लिया। उनके विरोधी कुनबे में खुशी थी कि दिल्ली में बाहरी व्यक्ति बाटर लो साबित होगा। किंतु अर्जुन सिंह दिल्ली के चक्रब्यूह को तोड़कर चुनाव जीतने में सफल रहे तब उन्हें केंद्र सरकार मे संचार मंत्री बनाया गया। उसके बाद राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंहा राव सरकार में मानव संसाधन मंत्री से नवाजा गया। उसके बाद मनमोहन सिंह सरकार मे मानव संसाधन मंत्री रहे, राज्य सभा सांसद रहते हुए 4 मार्च 2011 को अज्ञेय अर्जुन पंचतत्व मे विलीन हो गए।

जब उन्हें बनाया गया पंजाब का राज्यपाल

मप्र के मुख्यमंत्री रहते हुए राजीव गांधी द्वारा अर्जुन सिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाया गया। उस समय पंजाब की हालत अत्यंत दयनीय थी। राजनीतिक विष्लेशकों की मानें तो अर्जुन सिंह को पंजाब का राज्यपाल उन्हें परास्त करने के लिए बनाया गया था। उन दिनों पंजाब में गदर मारपीट मची हुई थी। किंतु अर्जुन के माथे पर चिंता की लकीरे नहीं देखी गई।

चिंता की जरूरत नहीं

उनके द्वारा सीधी से पंजाब के लिए रवाना होते समय उपस्थित जनसमुदाय से बस इतना कहा गया था कि जिंदा रहे तो जल्द आप लोगों के बीच आएंगे, कोई चिंता की जरूरत नहीं है। उनके इस बोल से लोगों के आंखों में आंसू तैरने लगा था। अर्जुन सिंह अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देते हुए आतंकवाद से झेल रहे पंजाब में जल्द ही राजीव-लोगोवाल समझौता कराकर पंजाब में शांति बहाल कराई गई। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए उस दौर में अर्जुन सिंह को भारत रत्न पुरस्कार देने की भी मांग उठी थी।
(यह आलेख पत्रिका समाचार से लिया गया है)

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