
इंजीनियरिंग में भी यही हाल है। भारत में हर साल जो 15 लाख नौजवान इंजीनियर बनकर कॉलेजों से निकलते हैं, उनमें से 15 से 20 प्रतिशत को नौकरी नहीं मिल पाती और बड़ी तादाद में नौजवानों को अपनी शैक्षणिक योग्यता से कम स्तर की नौकरी करनी पड़ती है। इसकी एक वजह तो यह भी है कि आईटी के अलावा अन्य क्षेत्रों में तेज विकास नहीं हो रहा है और इसलिए नौकरियों की कमी है। दूसरी बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर इंजीनियरिंग संस्थानों में पढ़ाई का स्तर बहुत खराब है, इसलिए ज्यादातर इंजीनियर नौकरी के काबिल नहीं हैं। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति और अन्य कुछ बड़े उद्योगपति भी कई बार यह कह चुके हैं।देखने में आया है कि कई संस्थान बंद हो रहे हैं या उनके यहां सीटें खाली पड़ी हैं। यह मुद्दा बहुत गंभीर है और शायद भारत सरकार के नीति-निर्माता अब भी इसकी गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं। हम मानते हैं कि हमारे यहां नौजवानों की सबसे बड़ी जनसंख्या होने का हमें फायदा मिलेगा, लेकिन यह फायदा घाटे में बदल जाएगा, अगर हमारे नौजवान स्तरहीन शिक्षा की वजह से काम पाने के काबिल ही न बने। कई अंतरराष्ट्रीय आधुनिक उद्योग चाहते हैं कि वे अपने कामकाज का प्रमुख केंद्र भारत को बनाएं, लेकिन उनका कहना है कि भारत में अन्य तकनीकी, वैज्ञानिक या ज्ञानाधारित काम करने के लिए नौजवान मिलना मुश्किल है।
पिछले कई वर्षों से सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में अपना निवेश बढ़ाने की कोशिश नहीं की है, जिससे हर स्तर पर शिक्षा का अंधाधुंध निजीकरण हो गया है। इससे समूचे देश में शिक्षा की ऐसी स्तरहीन दुकानों की बाढ़ आ गई है, जिनके मालिकों में कई तरह के लोग हैं और जिनका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है। ये दुकानें हर साल अरबों रुपये कमाती हैं और अधपढ़े प्रबंधक, इंजीनियर, डॉक्टर और अन्य स्नातक निकाल रही हैं। यू जी सी, ए आई सी टी ई और एम सी आई जैसी जिन संस्थाओं पर शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है, वे भ्रष्टाचार में डूबी हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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