
धर्म और विज्ञान के बीच संघर्ष का एक ऐतिहासिक संदर्भ है। यह संघर्ष मध्य युग में यूरोप में हुआ, जहां प्रचलित धर्म ईसाइयत था। ईसाइयत मध्य युग तक बहुत ज्यादा संगठित धर्म हो गया था, जहां जीवन के हर क्षेत्र में आधिकारिक ईसाई चर्च का प्रमाण-पत्र जरूरी था। हर छोटी से छोटी बात और विचार के सूत्रबद्ध और आधिकारिक हो जाने से स्वतंत्र विचार की जगह खत्म हो गई थी और धार्मिक संगठन सबसे बड़ा और सर्वव्यापी सत्ता तंत्र हो गया था। ऐसे में, नई बढ़ती हुई लोकतांत्रिक चेतना और वैज्ञानिक विचारों को चर्च के इस सत्ता तंत्र से टकराना पड़ा।दूसरे समाजों में धर्म का ऐसा सर्वव्यापी सत्ता तंत्र नहीं था, इसलिए धर्म और विज्ञान का ऐसा सीधा टकराव नहीं हुआ। हिंदू परंपरा हो, बौद्ध मत हो या इस्लाम हो, इनका समाज पर असर जितना भी गहरा हो, पर उनके तंत्र में अपेक्षाकृत खुलापन है।
इन धर्मों के कुछ सिद्धांत थे, जिन पर आस्था रखना इनके अनुयायी होने के लिए जरूरी था, बाकी विषयों में स्वतंत्र विचार रखने की काफी छूट थी। इसी वजह से पूर्व में धर्म व विज्ञान के बीच वैसा बड़ा टकराव नहीं हुआ, जैसे यूरोप में हुआ था। इटली यूरोपीय ईसाई देश है, लेकिन सांस्कृतिक-सामाजिक रूप से उस पर एशियाई प्रभाव काफी है।पूर्वी धर्म-संस्कृति में एक तत्व और है, जो धर्म और विज्ञान के सह-अस्तित्व को संभव बनाता है। पश्चिमी विचार प्रणाली एकरेखीय और विश्लेषणात्मक है, जिसमें किसी एक परिघटना का एक ही सत्य हो सकता है। इस तरह की विचार प्रणाली ने पश्चिम में वैज्ञानिक प्रगति को इस हद तक संभव बनाया। इसके विपरीत पूर्वी विचार प्रणाली अपकेंद्रित है। इसके मुताबिक एक ही परिघटना के अनेक सत्य हो सकते हैं। डार्विन का विकासवाद वैज्ञानिक सत्य है और ऋग्वेद या श्रीमद्भागवत का सृष्टि सिद्धांत धार्मिक सत्य है, दोनों अपनी-अपनी जगह अलग-अलग संदर्भों में सत्य हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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