अगले जनम मोहे अध्यापक न कीजो: कहानी में कड़वा सच

मेरे पिता एक शिक्षक थे जिनका स्वर्गवास आज से 6 वर्ष पहले हो गया। आज भी उनके सिद्धांत हमारे परिवार के सदस्यों में कूट-कूट कर भरे हुए है। उन्होंने हमें पढ़ाया लिखाया इस योग्य बनाया की हम जीवन में असफल न हों। उनके पढ़ाये कई बच्चे कई बड़े बड़े पदों पर है। उनका बड़ा सम्मान था लोग उन्हें गुरु जी कह कर बुलाते थे और कोई भी कार्य करने से पहले उनकी राय लेते थे। उन्होंने जीवन में कभी ट्यूशन नहीं पढ़ाया।

आज मैं भी उनका ही अपनाया कार्य कर रहा हूँ। संविदा शिक्षक से अध्यापक बन गया हूँ। सम्मान इतना है की गाँव का कोई भी शराबी स्कूल में आकर माँ बहन कर जाता है। कुछ कहने पर 181 की धमकी दे जाता है और मैं खून का घूंट पीकर रह जाता हूँ।

पढ़ाने के लिए समय कम मिलता है सारा समय बच्चों को खाना खिलाने, बीएलओ का काम देखने, जाति प्रमाण पत्र बनवाने, साइकल वितरण, छात्रवृत्ति बांटने, स्कूल की डाक बनाने, बच्चों की आईडी बनवाने और उन्हें मैप करने में निकल जाता है। शेष जो बचता है उसमें योगा की ट्रेनिंग, स्कॉउट ट्रेनिंग, रेड क्रॉस ट्रेनिंग, मीटिंग इत्यादि हो जाती है।

वैसे पढ़ाने की जरुरत भी कम पड़ती है क्यों की सारे बच्चों को पता है की 8वीं तक कोई फ़ैल तो होता नहीं है सो वो खुद ही नहीं पड़ना चाहते। पर पेपर के समय बड़ी समस्या आती है बोर्ड पर पेपर हल करना पड़ता है और जो सीएस बनता है उसकी सेवा करनी पड़ती है ऊपर से सीऐसी, बीऐसी भी घात लगा कर आते हैं फिर उनकी सेवा करो।

सबसे बड़ा संकट जो बच्चा नाम लिखाने के बाद पेपर देने भी नहीं आता उस की कॉपी खुद लिखना पड़ती है नहीं तो वो कक्षा में रुक जायेगा।

बड़े साहब (डीपीसी और डीईओ) जब आते है तो सीधे 5000 की पर्ची फटती है। हम कितने भी होशियार निकले बिना खिड़की वाले, बिना बिजली वाले, बिना पानी वाले, बिना बिल्डिंग वाले स्कूल में उन्हें हमारी कोई न कोई कमी मिल ही जाती है।

जब शाम को मैं घर लौटता हूँ तो मेरे पिता के विचार उभरने लगते है। उन्ही विचारों में खोया में घर पहुँच जाता हूँ घर पर जाकर अपनी पत्नी और 5 साल की बच्ची को देखकर सब भूल जाता हूँ। पर जब मेरी पत्नी का सूना गला और सूने हाथ देखता हूँ जिसमे शादी के समय सोने का पेण्डिल था और सोने की चूड़ियाँ थीं जो मैंने अपनी बच्ची के जन्म के समय ऑपरेशन के लिए बेच दिया था तो मैं अपने आप को धिक्कारने लगता हूँ और मेरा मन ग्लानि से भर जाता है।
       
जब बच्ची को पढाता हूँ तो लगता है मेरी बच्ची बहुत होनहार है बड़ी होकर मेरा नाम रोशन करेगी। पर जब उसके भविष्य के बारे में सोचता हूँ तो संकट में घिरा पाता हूँ उसके लिए मेरे पास कुछ नहीं है। उसकी पढ़ाई , शादी सब कैसे होगी।

सरकार कहती है हम दो हमारे दो, मैं तो अपनी एक ही बच्ची के भविष्य को सुरक्षित नहीं पाता हूँ इसलिए दूसरे बच्चे के बारे में कभी सोचा भी नहीं।

कभी कभी लगता है की अपने को इस संसार के बोझ से मुक्त कर लूँ पर मेरी आँखों के सामने मेरी प्यारी बच्ची का चेहरा आ जाता है । मुझमें तो इतना साहस भी नहीं है की राजेश पाटीदार और चंदू भाई की तरह जीवन से मुक्त हो जाऊ।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ की अच्छा हुआ की मेरे पिता आज से 6 वर्ष पहले इस दुनिया से चले गए, अगर वो आज होते तो मेरी दशा देखकर रोज तिल तिल कर मर रहे होते।

कृपया मेरा नाम छाप कर मेरी दशा पर दुनिया को हँसने का मौका न दें।
धन्यवाद्

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