ग्वालियर। जब जब अंग्रेजों का जिक्र आता है ग्वालियर को एक गद्दार देश के रूप में याद किया जाता है, जिसके राजा ने अंग्रेजों से संधी की थी परंतु इतिहास में दर्ज कुछ पन्ने ऐसे भी हैं जो ग्वालियर के गौरव का बखान करते हैं।
ये वही शहर है जिसके एक भुतहा घोषित मकान में क्रांतिकारियों के बनाए बम के धमाके से ही शहीद भगत सिंह ने अंग्रेज सरकार की संसद के बहरे कानों में हिंदुस्तानी क्रांति की आवाज पहुंचाई थी। शहर के तत्कालीन विक्टोरिया कॉलेज की साइंस लैब से चुराए सामान से शहर में क्रांतिकारियों की इस फैक्ट्री में देश को आजाद कराने बम बनाए जाते थे।
शहर में 1857 की जंग-ए-आजादी के समय से ही देश को स्वतंत्र कराने की चिंगारी सुलग रही थी। चंबल के सपूत रामप्रसाद बिस्मिल की शहादत ने इसे भड़का दिया। बिस्मिल के संपर्कों और सिंधिया रियासत में अंग्रेजी प्रशासन का सीधे दखल न होने की वजह से शहर क्रांतिकारियों के लिए महफूज ठिकाना बन गया था। खुद बिस्मिल के आलावा चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू समेत बंगाल के क्रांतिकारी जतींद्र दास यहां खुफिया तौर पर आते जाते रहे थे। चंद्रशेखर आजाद का तो मुख्य ठिकाना ही ग्वालियर, झांसी व ओरछा बन गए थे। अंग्रेज सरकार की नाक में दम करने की रणनीति ग्वालियर के ठिकानों से ही आजाद ने बनाई थी। इसे अंजाम देने के लिए तय किया गया कि बम ग्वालियर में ही बनाए जाएं, और इनका प्रयोग सशस्त्र क्रांति में किया जाए।
क्रांति दल की कारगुजारियों का केंद्र था ग्वालियर
बल के सपूत रामप्रसाद बिस्मिल के 1927 में काकोरी कांड के आरोप में फांसी पर झूल जाने के बाद क्रांतिकारियों की कानपुर में एक गुप्त बैठक हुई। बैठक में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (HRA) का नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) दिया गया। चंद्रशेखर आजाद को इसका चीफ कमांडर बनाया गया। घोषित रूप से मुख्यालय आगरा में रखा गया, लेकिन अंग्रेजों की नज़र से महफूज़ होने की वजह से क्रांति कार्यों के लिए आजाद और उनके साथियों की सक्रियता ग्वालियर में ही ज्यादा बना रही। हथियार और गोला-बारूद का इंतजाम ग्वालियर से ही किया जाता था। इसकी वजह यह थी कि सिंधिया सरकार में हथियारों की खरीद फरोख्त पर अंग्रेजी सरकार की कोई प्रशासिनक दखलंदाजी नहीं थी।
क्रांतिकारी गतिविधियों की रणनीति को अंतिम रूप ग्वालियर से ही दिया जाता था। यहीं बैठ कर फैसला लिया गया कि HSRA के लिए बम भी बनाए जाएं। इसके लिए भी ग्वालियर को ही मुफीद माना गया।
क्रांति दल की पहली बम फैक्ट्री ग्वालियर में
बम फैक्ट्री और HSRA की गतिविधियों को अंग्रेजों की नजरों से बचाए रखने के लिए इसके सदस्य दतिया के मूल निवासी भगवानदास माहौर, सदाशिव मलकापुरकर और गजानन पोतदार को उच्च शिक्षा के नाम पर शहर के कॉलेजों में दाखिल कराया गया। ये पहले हॉस्टल में रहे, लेकिन गतिविधियों को गुप्त रखने के लिहाज से इन्हें किराए के मकानों में अलग शिफ्ट कर दिया गया। भगवानदास माहौर ने मौजूदा नाका चंद्रवदनी इलाके में ठीक पुलिस चौकी के सामने एक वीरान पाटौर को अपना ठिकाना बनाया। गजानन पोतदार तत्कालीन जनकगंज थाने के पास और मलकापुरकर भी वहीं पास में ही भेलसे वालों के बाड़े में रहने लगे। पोतदार जिस मकान में रहने लगे थे, उसके मालिक का किसी को पता नहीं था, साथ ही आम लोगों के लिए भुतहा घोषित किए जाने की वजह से वहां कोई आताजाता नहीं था। इसी भुतहा मकान ने क्रांतिकारियों की बम पैक्ट्री का किरदार निभाया था।
बंगाल के क्रांतिवीर ने सिखाया था बम बनाना, कॉलेज की लैब से चुराई सामग्री
क्रांति की गतिविधियों के लिए जब बम बनाने का फैसला कर लिया गया तो खुफिया तौर पर आगरा में बंगाल के क्रांतिवीर जतीन दा को बुलाया गया था। प्रशिक्षण के बाद साइंस के विद्यार्थी पोतदार और मलकापुरकर ने मिल कर विक्टोरिया कॉलेज की साइंस लैब से जरूरी रसायन चुराए। दूसरा सामान भी शहर से ही जुटाया गया। सारा सामना गोपनीयता के मद्देनजर मिठाई के डिब्बों और दूध के बर्तनों में रख कर पोतदार के मकान पर पहुंचाया जाता था।
पहला बम सिगरेट के टिन में, आजाद ने किया था परीक्षण
क्रांतिकारियों के पास उन दिनों सेना या पुलिस के लिए बनाने बमों के लोहे के बने ढलवां मुहैया नहीं हो सकते थे। लिहाजा सिगरेट के टिन में पहला बम बनाया गया। आजाद को बताने से पहले उसका परीक्षण जरूरी था, लिहाजा भगवानदास माहौर के मकान से सटे वीरान जंगल में सफल परीक्षण किया गया। पहले बम की कामयाबी के बाद बम फैक्ट्री के लिए कानपुर से लोहे के बने ढलवां खोल भी उपलब्ध करा दिये गए। इसके बाद आजाद ग्वालियर पहुंचे और बम का परीक्षण खुद करने की ठान ली। गजानन पोतदार के संस्मरणों के मुताबिक मकान के पास ही उस वक्त जनकगंज पुलिस चौकी हुआ करती थी। आजाद ने बम चौकी पर ही फेंका, धमाके से अफरातफरी मच गई, आसपास के बाजार बंद हो गए। लेकिन जब तक पुलिस सक्रिय हो पाती, आजाद पास के ही लक्ष्मीनारायण मंदिर के तहखाने से हो कर बाहर निकल गए और पठानकोट एक्सप्रेस में बैठ कर झांसी पहुंच गए। सिंधिया रियासत के दस्तावेजों में ये घटना दर्ज है, हालांकि दस्तावेजों में विस्फोट किसने किया इस बात का कोई उल्लेख नहीं है। भगत सिंह के द्वारा किए गए बम धमाके और उनकी शहादत के बाद पोतदार और उनके साथियों पर भी ग्वालियर में बम बनाने के आरोप में 1930-31 में मुकदमा चला, लेकिन सुबूत के अभाव में सरकार की बहुत किरकिरी हुई, और सभी आरोपियों को छोड़ना पड़ा।
संसद में हुआ धमाका
8 अप्रेल 1929 को संसद की बैठक तय थी, उसमें पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल पास किए जाने थे। भगत सिंह व उनके साथियों को इसी दौरान बम विस्फोट करना था। ग्वालियर में इसके लिए विशेष बन बनाया गया, इसमें से जीवन के लिए घातक सामग्री नहीं मिलाई गई, महज धमाके लिए ये बम तैयार किया गया। भगत सिंह चाहते थे कि इस योजना में ग्वालियर के किसी साथी को साथ लिया जाए, लेकिन आजाद ने इससे संगठन के लिए हथियार जुटाए जाने अभियान पर असर पड़ने की वजह से इन्हे दिल्ली बुलाए जाने के बावजूद बम कांड में सामिल नहीं किया। पूरी रैकी के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने संसद में बम फेंक कर क्रांति के पर्चे बांटे और गिरफ्तारी दे दी।