जैन समाज की संथारा प्रथा आपराधिक कृत्य करार

भोपाल। राजस्थान हाईकोर्ट ने जहां जैन समाज की संथारा प्रथा को इच्छा मृत्यु करार दिया है, वहीं जैन मुनि इसे एक व्रत कह रहे हैं। इस मुद्दे पर विवाद छिड़ गया है। जैन समाज के लोग इस संबंध में हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका भी दाखिल करने की तैयारी कर रहे हैं।

राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस सुनील अंबवानी व जस्टिस वीएस सिराधना की बेंच ने मृत्यु के लिए अन्न-जल त्यागने को अपराध और संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन माना है। बैंच ने अपने फैसले में कहा है कि ऐसा करने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्म हत्या व संथारा के लिए उकसाने वालों के खिलाफ धारा 306 के तहत कार्रवाई की जाए। आस्था का कानून में कोई अधिकार नहीं है। इसलिए इस प्रथा को अवैध घोषित कर ऐसा करने वालों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह न तो धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है और न ही मूल अधिकार।

व्रत है यह प्रथा आत्मघात नहीं
आत्महत्या में कोई न कोई मानसिक तनाव कारण होता है। संथारा में ऐसा नहीं है। शारीरिक शक्ति जब क्षीण हो जाती है, तब साधक धीरे-धीरे अन्न-जल आदि को कम करते हुए संलेखना या संथारा धारण करता है। यदि संथारा आत्मघात है तो व्रतोपासना, नवरात्रि में उपवास व रोजे आदि क्यों किए जाते हैं। 
मुनिश्री अजित सागर (चातुर्मास- चौक दिगंबर जैन धर्मशाला में )

यह शताब्दियों पुरानी परंपरा है। व्यक्ति जब चलने-फिरने लायक नहीं रहता है, तब वह धीरे-धीरे अच्छे लगने वाले रसों का त्याग करता है। साधक शरीर की इच्छाओं को कम करके आत्म चिंतन में लीन होकर शरीर को त्याग देता है। 
आचार्य विवेक सागर महाराज
(चातुर्मास-जैन मंदिर पंचशील नगर)

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