सद्भावी बन्धुजन! आप सभी शिक्षित बन्धुजनों को यह ज्ञात होना चाहिए कि किसी भी शिष्ट-सदाचारी समाज का मूल आधार ही शिक्षा पद्धति है। जैसी शिक्षा समाज को दिया जायेगा ठीक वैसा ही समाज का निर्माण भी होगा। आज हमारे समाज की स्थिति अत्यन्त दयनीय है आज समाज में चौतरफा झूठ-चोरी-बेईमानी-भ्रष्टाचार-हत्या-आतंकवाद-अलगाववाद-माओवाद-उग्रवाद चरम पर है जिसके कारण सभी देशों की सरकारें भी परेशान हैं|
आज धरती की समस्या इतनी बढ़ चुकी है कि धरती विनाश के कगार पर खड़ी है जिसका समाधान मानवीय स्तर से कदापि सम्भव नहीं है। जिसका एकमेव एक कारण वर्तमान शिक्षा पद्धति है। आज हमारे समाज में दी जाने वाला शिक्षा पद्धति में ही कुछ न कुछ कमी है ऐसा सरकार और हमारे समाज के शिक्षा विद्-विद्वत वर्ग भी तहे दिल से स्वीकार कर रहे है और वेवसाईट www.mygov.in के माध्यम से शिक्षा नीति में सुझाव भी मांगे जा रहे है।
वर्तमान में दिया जाने वाला लौकिक-जड़ प्रधान शिक्षा पद्धति एक पक्षीय (एकांगी) है| जिसमें से सनातन ‘‘विद्यातत्त्वम्’’(तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान-खुदाई इल्म-परफैक्ट नॉलेज) तो निकल ही चुका है जो विद्या का मूल सूत्र ‘परा विद्या’ ‘श्रेय विद्या’ के आंठों अंग को भी हटा दिया गया । शिष्ट-सदाचारी समाज के लिए अनिवार्य विद्या का प्रमुख अंग यम भी निकल दिया गया|
यम के पांच अंग ( 1.सत्य 2. अहिंसा 3. अस्तेय 4.अपरिग्रह 5. ब्रह्मचर्य) को भी निकाल दिया गया|
जब समाज को ‘सत्य’ का पाठ नहीं पढ़ाया जायेगा, तो कैसे समाज सत्य प्रधान बनेगा ?
जब शिक्षा में ‘अहिंसा’ नहीं रहेगा, तो कैसे समाज से हिंसा आतंकवाद ख़त्म होगा ?
जब समाज को ‘अस्तेय’ यानी चोरी न करना किसी के वस्तु को उसके अनुमति के बिना न छूना ये पाठ नहीं पढ़ाया जायेगा, तो कैसे समाज चोरी करना बन्द कर देगा ?
जब ‘अपरिग्रह’ जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना की शिक्षा नहीं दी जायेगी, तो समाज से भ्रष्टाचार कैसे समाप्त होगा ?
जब समाज को ‘ब्रह्मचर्य’ की शिक्षा नहीं दी जायेगी, तो समाज में व्यभिचार-असंयम क्यों नहीं फैलेगा ?
आज की शिक्षा पद्धति से ‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ - परा विद्या को तो निकाल ही दिया गया, वेद ( ऋग्वेद, यर्जुवेद, सामवेद, अर्थववेद) के पाठ को भी निकाल दिया गया आखिर किस लाभ के चलते हमारे सनातन विद्या को आज के शिक्षा पद्धति से हटा दिया गया ? जिसके परिणाम स्वरूप आज समाज में झूठ-चोरी-बेईमानी-भ्रष्टाचार-हत्या- आंतकवाद चरम पर है।
सनातन विद्या का मूल ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ यानी विद्या वही है जिससे मुक्ति मिले, मगर आज का यह शिक्षा घोर आसुरी-भौतिक वादी-बन्धन-पतन कारक है| जिसके परिणाम स्वरूप समाज की ये स्थिति है जो मानव जीवन के पतन का रूप है। यदि ऐसा स्वार्थ प्रधान-अर्थ प्रधान लौकिक शिक्षा समाज को दी जाएगी तो निश्चित रूप से समाज के युवा वर्ग स्वार्थी-बेईमान-भ्रष्ट होंगे जिसके फलस्वरूप समाज में सदा अशान्ति, अभाव, स्वार्थ, व्यभिचार कायम रहेगा। ऐसे शिक्षा को बदल कर उसके जगह पर सनातन ‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ को समाज में पूरी तरह लागू करना अब अनिवार्य हो चुका है| तब ही समाज में शान्ति-अमन-चैन-से युक्त सत्य-धर्म-न्याय-नीति वाला सत्पुरुषों का समाज सम्भव है| जिससे समाज में व्याप्त समस्त विकृतियों-बुराईयों का समूल समाधान है ।
आप सभी सद्भावी बन्धुजनों को ज्ञात हो कि वर्तमान में हमारे ‘सदगुरुदेव’ परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के पास सत्य सनातन वाला वह ‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ था जिस विधान से उन्होंनें हजारों लोगों को संसार-शरीर-जीव(रूह-सेल्फ), आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म(सोल-नूर-स्पिरिट), परमात्मा(खुदा-गॉड-भगवान) का शिक्षा-स्वाध्याय-अध्यात्म-तत्त्वज्ञान विधान से पृथक्-पृथक् बात-चीत सहित स्पष्टतया जनाया-दिखाया । जो ज्ञान सतयुग में भगवान् श्रीविष्णु जी ने, त्रेता में भगवान श्रीराम जी ने, द्वापर में भगवान् श्रीकृष्ण जी ने दिया था।
‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ को विस्तृत रूप में जानने के लिए परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस द्वारा विरचित ‘‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’’ पुष्पिका-14 का अध्ययन करें ।
कलियुगीन भगवदवतार परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस द्वारा संस्थापित ‘सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्’ का उद्देश्य पूरे धरती से असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति के जगह पर सत्य-धर्म-न्याय-नीति तथा आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड के जगह पर सत्य-सनातन धर्म को संस्थापन करके पूरे समाज में ‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ को लागू कर जनमानस का सुधार करते हुए सुख-समृद्धि से युक्त दोष-रहित सत्य प्रधान समाज का निमार्ण करना ही एकमेव एक लक्ष्य-उद्देश्य है ।
आज समाज में धर्म के नाम पर फैले अनेकता-वर्गवाद-सम्प्रदायवाद, हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई वास्तव में ये धर्म नहीं है बल्कि ये सम्प्रदाय है । धर्म न किसी वेश-भूषा-तिलक-चन्दन-कन्ठी माला में बंधा हुआ,दान-चन्दा-चढ़ावा लेकर, अपने आश्रमों को अट्टालिकाएँ बनाने का कोई धन्धा भी नहीं है । इस तरह के धर्म के नाम पर फैले अनेकता को देखकर हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग भी वर्तमान के सन्त महात्माओं से तथा धर्म से बिक्षुब्ध दिखाई देते हैं | मगर वास्तव में धर्म वह सर्वोत्तम सत्य विधान है, जिसमें परमाणु से लेकर परमेश्वर तक की प्रायौगिक जानकारी सहित श्रम एव जयते, सत्यमेव विजयते समाहित है | जिससे हमारा जीवन दोष रहित-सत्य प्रधान-सुख समृद्धि से युक्त भरा-पूरा सर्वोत्तम होगा इसी विधान को ही दूसरे शब्दों में ‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ भी कहते हैं । इसी वास्वविक धर्म के संस्थापन हेतु ही युग-युग में श्री भगवान का अवतार होता है । सतयुग में भगवान् श्रीविष्णु जी, त्रेता युग में भगवान श्री रामचन्द्र जी, द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी तथा वर्तमान में परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ने इस वास्वविक सत्य-धर्म के रहस्यों को प्रकट करके ‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’ पर आधारित अनेक अनमोल सद्ग्रन्थों की रचना किया जिसके माध्यम से समाज जाँच-परीक्षण कर सकता है ।
अतः श्रीमान जी को इस पत्र के माध्यम से ज्ञापन देना चाहते हैं कि जब तक समाज में इस पारलौकिक ‘‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’’ को लागू नहीं किया जायेगा तब तक समाज में सुख-समृद्धि-शान्ति-आनन्द-सत्य से युक्त दोष-रहित, सत्य प्रधान सत्पुरुषों का समाज सम्भव ही नहीं है । यदि आप जनमानस का कल्याण तथा भारत को विश्व का धर्म गुरु बनाना चाहते हों तो जल्द-से जल्द इस सत्य सनातन पारलौकिक ‘‘विद्यातत्त्वम् पद्धति’’ लागू कर यश का पात्र बनें । इस परमपुनीत कार्य हेतु सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् कृत संकल्पित एवं समर्पित है जब तक समाज में विद्यातत्त्वम् पद्धति नहीं लागू होगा तब तक हम लोगों का संर्घष जारी रहेगा । शेष सब भगवत् कृपा ।
‘सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्’
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लेखक की ओर से आग्रह किया गया है कि कृपया इसे इतना शेयर कीजिए कि प्रधानमंत्री महोदय तक पहुंच जाए और समाज में मजबूत शिक्षा व्यवस्था की शुरूआत हो सके। यदि आप भी सहमत हैं तो आगे बढ़ाइए