शिक्षा: मप्र- सिर्फ एक कदम काफी नहीं

राकेश दुबे@प्रतिदिन। दुकान कि तरह चलते स्कूलों पर मध्यप्रदेश सरकार ने एक आदेश के जरिये नकेल कसने की कोशिश की है| इस आदेश के बाद स्कूल पुस्तकों और गणवेश को विशेष दुकान से खरीदने के लिए दबाव नहीं बना सकेंगे| यह पहला कदम है, सुधार कि ओर| आगे कि यात्रा बहुत लम्बी है| ख़ैर, जब जागे तब ही सबेरा| वैसे भी स्कूल चुनना शिक्षा के सबसे विवादास्पद मुद्दों में एक है। माता-पिता के सामने स्कूल चुनने के विकल्प होने चाहिए, इस पर विवाद क्यों?

स्कूली शिक्षा लोकतंत्र की बुनियाद है, इसमें सबके लिए समान शिक्षा की बात है और इसके पाठ्यक्रम से नागरिकों की तरक्की होनी चाहिए। । समान स्कूल का मतलब यह था कि अड़ोस-पड़ोस के सभी बच्चे एक स्कूल में जाएंगे, जो सरकारी अनुदान से चलेंगे। दूसरा विचार अमेरिकी लोकतंत्र में निहित मान्यताओं का हिस्सा था। इसके मूल में निजी आजादी थी और चुनने के अवसर थे। इसमें राज्य की भूमिका को न्यूनतम रखा गया। इसी विचार पर समान अमेरिकी स्कूल तंत्र का खाका तैयार हुआ। कुछ को लगा कि शिक्षा में धार्मिक उपदेश शामिल है, जो इस विचार का मुखर विरोधी था कि सार्वजनिक संस्थाएं धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए। कौन सहपाठी होने चाहिए, इसका विकल्प भी दूसरा अहम मसला रहा।

1960 के दशक में मिल्टन फ्रेडमैन के विचार तेजी से सामने आए। इसके मूल में यह सोच थी कि बच्चों के माता-पिता उपभोक्ता हैं, वे अपने बच्चों को जिस स्कूल में भेजना चाहते हैं, भेज सकते हैं। इस विचार के प्रस्तावकों को शिक्षा के अर्ध-सरकारी रूप की खूबियों का अंदाजा था। वे यह भी जानते थे कि सभी को समान शिक्षा देना महत्वपूर्ण है। बीते 30 वर्षों में यह अर्थशास्त्रीय विचार भारत में मजबूत हुआ, लेकिन बाकी सोच पीछे रह गई। मध्य प्रदेश में शायद ही कोई राजनेता हो जिसने स्कूल न चलाया हो या न चलाता हो| ये स्कूल आय के साधन और शोषण के जरिये बने|

शिक्षा में स्पर्धा और बाजार-तंत्र किसी भी देश में शिक्षा का भला नहीं कर पा रहे हैं, इससे विषमता ही बढ़ी है। यही विचार भारत में भी अपनी जड़ें जमा चुका है। हमने संभवत: दुनिया में स्कूलों का सबसे बड़ा और सबसे प्रतिस्पर्धी बाजार खड़ा कर लिया है। हर तरह के स्कूल हमारे यहां कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं। ये सब सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी को बढ़ा रहे हैं। दूसरी तरफ, शैक्षणिक परिणामों में भी जबर्दस्त गिरावट आई है। शिक्षा आय और आजीविका का निर्धारण करती है। हम जिस समान समाज का सपना देखते हैं, यह उसका ढांचा भी तैयार करती है। वंचित छात्रों को अधिक अवसर प्रदान कर यह गणतंत्र की नींव मजबूत करती है। इससे निकलने का एक ही रास्ता है कि हम अपने सार्वजनिक शिक्षा तंत्र को सुधारें।

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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