
उन्हें उस एक सदस्यीय समिति का प्रमुख बनाया गया है, जो रेलवे की वाणिज्यिक मामलों में जिम्मेदारी और पारदर्शिता लाने के उपाय सुझाएगी। श्रीधरन की योग्यता और क्षमता पर देश में शायद ही किसी को कोई संदेह होगा। श्रीधरन का रेलवे से जुड़ना इसलिए भी उम्मीद जगा रहा है कि वह काम के मामले में कोई समझौता न करने के लिए जाने जाते हैं।
जहां तक भारतीय रेलवे का प्रश्न है तो फिलहाल उसकी ख्याति अपनी अकुशलता, लेट लतीफी और करप्शन के लिए ही है। तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों में रेलवे का दर्जा भ्रष्टाचार के मामले में सबसे ऊंचा है। केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के अनुसार 2013 में उसे करप्शन की सबसे ज्यादा शिकायतें रेलवे से ही मिलीं।
पिछले साल तत्कालीन रेल मंत्री पवन कुमार बंसल को रेलवे के शीर्ष पदों की नियुक्ति में जारी भ्रष्टाचार के चलते ही अपने पद से हाथ धोना पड़ा था। बंसल पर आरोप था कि उन्होंने रिश्वत लेकर एक अधिकारी को रेलवे बोर्ड में रखा। अधिकारी बोर्ड में इसलिए आना चाहते हैं ताकि मोटी घूस के एवज में टेंडर के हेरफेर से मनमाने लोगों को मोटे फायदे पहुंचा सकें। दरअसल राजनेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों और दलालों का एक गठजोड़ रेलवे को हर साल करोड़ों का चूना लगा रहा है।
सुरेश प्रभु रेलवे के मौजूदा नियमों के तहत 150 करोड़ रुपये से ज्यादा के टेंडर रेलवे बोर्ड के तहत आते हैं और मंत्री ही इनका निबटारा करते हैं , को पूरी तरह बदलने के इच्छुक हैं। प्रभु की योजना एक ऐसा पारदर्शी सिस्टम बनाने की है, जिसमें टेंडर और खरीद के मामलों का मंत्री की मेज तक पहुंचे ही नहीं| वे रेलवे के विकेंद्रीकरण के पक्ष में हैं और चाहते हैं कि रेलवे बोर्ड के कई अधिकार संबंधित जोन के हवाले कर दिए जाएं। हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि नौकरशाहों का रोल तब भी बना रहेगा क्योंकि मंत्री न सही, रेलवे बोर्ड के चेयरमैन और बोर्ड के सीनियर मेंबर्स टेंडरिंग प्रोसेस में जीएम पर दबाव डाल ही सकते हैं। देखना यह है कि श्रीधरन इसकी क्या काट ढूंढते हैं।