चुनाव 2014: मुद्दों और मूल्यों पर नहीं हैं

राकेश दुबे@प्रतिदिन। लगभग सभी राजनीतिक दल अपने चनावी घोषणा पत्र प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जारी कर चुके हैं | जिनके घोषणा छप कर नहीं आये हैं,वे भी दायें- बाएं से जो कुछ कह रहे हैं, वह भ्रम मात्र ही है | सबसे ज्यादा चिंता सबने शिक्षा और स्वास्थ्य पर दिखाई है |
हकीकत यह है कि यर दोनों विषय देश में एक बड़े बाज़ार में बदल चुके हैं | इससे उबरने की कोई ठोस योजना किसी भी घोषणा पत्र में नहीं है | ये मुद्दे कुपोषण के साथ राष्ट्र की नीव के मुद्दे हैऔर इन विषयों पर कुछ भी करने के लिए मूल्यों [values] का निर्धारण जरूरी है | यह तब ही हो सकता है, जब व्यक्ति से पहले राष्ट्र हो |

भारत में स्वास्थ्य के बाज़ार की कारगुजारी देखिये | पूंजीवादी सोच ने देश में १९९०-९१ के बाद सरकारी अनुमतियों से एक ऐसा जाल खड़ा किया है जो निरंतर गरीबों को चूस रहा है| एक अध्ययन के मुताबिक देश में लगभग ३,५ करोड़ लोग हर साल सिर्फ स्वास्थ्य कारणों से गरीबी रेखा के नीचे चले जा रहे हैं| वे गंभीर बीमारी के चलते निजी अस्पतालों या डॉक्टरों के पास जाने को विवश हैं|महंगी चिकित्सा और दवाओं के चलते उनकी माली-हालत अचानक खराब हो जाती है और हंसी-खुशी भरी उनकी गृहस्थी बदहाली के गर्त में डूब जाती है| जबकि देश का संविधान इसकी गारंटी लेता है और भारी भरकम स्वास्थ्य विभाग को चलाने के लिए केंद्र और राज्य नागरिकों से वसूले कर का एक बड़ा हिस्सा इस मद पर खर्च करती हैं |

इसी तरह शिक्षा का क्षेत्र है| इन दोनों क्षेत्रों में पूर्व की एनडीए सरकार हो या आज की यूपीए सरकार, किसी ने भी बजटीय प्रावधान को अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से बढ़ाने का वायदा पूरा नहीं किया| क्या दोहरी शिक्षा प्रणाली और शिक्षा के लगातार होते निजीकरण को जारी रखते हुए ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ की कामयाबी सुनिश्चित की जा सकती है? इन सवालों का कोई अर्थ नहीं है ?ये बेमतलब हैं? नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज ने भी अपनी नयी पुस्तक ‘एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन्स’ (वर्ष 2013) में इन सवालों को उठाया है |

प्रधानमंत्री कौन बनेगा की होड़ में मुद्दे और मूल्य गायब हो रहे हैं, सवाल जनता के हैं उसे ही जवाब ढूँढना होंगे |

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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